गोस्वामी तुलसीदास ने कहा है कि भोजन, भोग, भय और निद्रा, ते नर पशु समान। अगर इन चारों के होने पर इंसान पशु समान है, तो फिर वह क्या चीज है जो मनुष्य को पशु से अलग करती है। इस चराचर जगत में प्रत्येक जीव भोजन करता है। किसी न किसी रूप में हर जीव भोजन यानी पोषण ग्रहण करता है। भोग यानी पांचों इंद्रियों से भोग सभी जीव किसी न किसी रूप में करते ही हैं। भय यानी मनुष्य ने जो कुछ भी कमाया है, उसके खो जाने का भय हो या फिर अन्य जीवों में प्रकृति से लेकर अन्य दूसरी तरह के भय होते ही हैं। भय से मुक्त दुनिया का कोई भी जीव मुक्त नहीं है। भय का यह रूप इंसान के अलावा दूसरे जीवों में भिन्न हो सकता है। अब बात बची निद्रा की।
निद्रा प्रत्येक जीव की एक अनिवार्य आवश्यकता है। हर जीव में निद्रा की अवधि अलग-अलग हो सकती है, लेकिन जरूरत होती जरूर है। तो फिर, ऐसा क्या है? जिसकी वजह से इंसान पशु से अलग हो जाता है। वह है विचार, चिंतन। विचार कहां पैदा होते हैं? मस्तिष्क में। मस्तिष्क किससे बना है पदार्थ से। यानी बिना पदार्थ के विचार नहीं हो सकते हैं। विचार या चिंतन के लिए पदार्थ का होना अनिवार्य है। यह विचार ही है जो इंसान को पशु से अलग कर देता है। पशुओं में चिंतन या विचार की कोई गुंजाइश नहीं होती है। जो लोग पशुओं के आचरण से अच्छी तरह वाकिफ होंगे, वह जानते हैं कि उनके लिए कोई मायने नहीं रखता कि वे कब पैदा हुए हैं और कब मर जाएंगे।
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वह एक निश्चित प्रक्रिया के तहत जीते हैं और मर जाते हैं। लेकिन मनुष्य मृत्यु को भी टालने की कोशिश करता है। हालांकि वह जानता है कि मृत्यु अटल है। लेकिन यह विचार की ही शक्ति है जो उसे कल्पनाशील बनाती है, उद्यमी बनाती है, बीमारी या मौत से बचने का प्रयास करना सिखाती है। अगर विचार करने की शक्ति नहीं होती, तो यह दुनिया भी इतनी खूबसूरत नहीं होती। लेकिन हमारे चिंतन या विचार की भी एक सीमा है। हम उन चीजों से परे कल्पना या विचार नहीं कर सकते हैं जिसे हमने देखा नहीं है। हमारे पूर्वजों ने चिड़िया, तितली या तिनकों को उड़ते देखा, तब हवा में उड़ने का विचार उनके दिमाग में पैदा हुआ।
मछलियों और लकड़ी को पानी पर तैरते देखकर ही नाव और बाद में जलयान, पनडुब्बी आदि बनाने का विचार पैदा हुआ। कहने का मतलब यह है कि हम किसी ऐसी वस्तु या विचार की कल्पना नहीं कर सकते हैं जो अपदार्थिक हो। जिसको हमने या किसी ने देखा न हो। किसी एक भी ऐसी वस्तु या विचार की कल्पना करके देखिए, नतीजा शून्य ही होगा। कहने का मतलब यह है कि हमारे विचार कितने भी नए हों, कितने भी मौलिक कहे जा रहे हों, लेकिन वे होंगे किसी न किसी विषय, वस्तु या पदार्थ के सापेक्ष ही। निरपेक्षता तो सिर्फ एक विचार है जो सापेक्षता से ही उपजा है। प्रत्येक वस्तु, विचार, कल्पना किसी न किसी के सापेक्ष ही होगी। हमें यही बात अन्य पशुओं से अलग करती है। विचारशून्यता का मतलब ही पशु हो जाना है। चिंतन खत्म यानी पशु में इंसान का तब्दील होना है। हमें इसी विचारशीलता को जीवित रखना है।
-संजय मग्गू
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