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आप की रणनीति और विपक्षी राजनीति की अनिश्चितता

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भाजपा को लगातार तीसरी बार सत्ता में आने से रोकने के लिए बने विपक्षी इंडिया गठबंधन में लोकसभा चुनाव के लिए सीटों के बंटवारे से पहले हो रहे बिखराव ने राजनीति के नए समीकरण बना दिए हैं। देश भर में भाजपा के सामने एक ही विपक्षी उम्मीदवार को उतारने का फॉर्मूला देने वाले बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की विपक्षी गठबंधन को मजबूत करने में बड़ी भूमिका रही थी। एक तरफ वो खुद भाजपा के साथ हो गए हैं। वहीं, दूसरी तरफ कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे को गठबंधन का प्रमुख बनवाने की वकालत करने वाली तृणमूल कांग्रेस और आम आदमी पार्टी अकेले चुनाव लड़ने का मन बना रही हंै। इतना ही नहीं, आप ने तो गुजरात में उम्मीदवार भी घोषित कर दिए और पंजाब में भी 13 सीटों पर चुनाव लड़ने की घोषणा कर दी है।

अलबत्ता देखना दिलचस्प होगा कि दिल्ली और अन्य राज्यों में सीट बंटवारे को लेकर आप के संयोजक अरविंद केजरीवाल क्या रणनीति अपनाते हैं? दरअसल, आप नेता केजरीवाल शुरू से ही विपक्षी गठबंधन में हैं और माना जा रहा है कि धमकी की राजनीति कर रहे हैं। दिल्ली और पंजाब में सरकार बनने एवं गुजरात में विधायक जीतने से आप को अखिल भारतीय पार्टी का दर्जा मिल गया है। जिन राज्यों में आप का असर है, उनमें भाजपा के अलावा कांग्रेस ही मुख्य दल है। माना यही जाता है कि आप का वजूद ही कांग्रेस के समर्थक माने जाने वाले मतों पर है।

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लिहाजा, जब दिल्ली में अफरशाही पर नियंत्रण पर केन्द्र सरकार के अधिकार वाला बिल संसद में पेश किया गया तो आप ने इसका विरोध करने में कांग्रेस का समर्थन मांगा। उसने धमकी दी कि अगर कांग्रेस ने समर्थन नहीं दिया को वह सीटों का तालमेल नहीं करेगी। कांग्रेस ने अपने नेताओं के विरोध के बाद भी समर्थन किया। बावजूद इसके, आप ने गुजरात में उम्मीदवार घोषित कर दिए। पंजाब में सभी सीटों पर लड़ने की घोषणा कर दी। ऐसे में माना जा रहा है कि आने वाले दिनों में आप अपनी रणनीति में काफी फेर-बदल करेगी।

लोकसभा चुनाव में अब कुछ ही महीने बचे हैं। तमाम विरोध और उठा-पटक के बाद भी आप ने पिछले कुछ सालों में अपनी राजनीतिक ताकत बढ़ाई है। दिसंबर 2022 के नगर निगम चुनाव में आप की जीत ने नए समीकरण बनाए हैं। माना जा रहा है कि अगर लोकसभा चुनाव में आप सही तरीके से कांग्रेस से तालमेल कर ले तो आप की छवि बदल जाएगी और कांग्रेस को संजीवनी मिल जाएगी। सवाल तो यही है कि कहीं यह साथ लड़ने या अकेले लड़ने का मसला चुनाव घोषित होने तक टलता रहा तो इन दोनों दलों को इन दोनों राज्यों में ज्यादा कुछ हासिल नहीं हो पाएगा।

2013 के विधानसभा चुनाव में आप को 70 सीटों में मिली 28 सीटें और उसके बाद के लगातार दो विधानसभा चुनाव में प्रचंड जीत ने दिल्ली की राजनीति बदल दी और कांग्रेस हाशिए पर चली गई। 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा सभी सातों सीटें जीती। आप को कोई सीट नहीं मिली, लेकिन वह कांग्रेस के मुकाबले ज्यादा वोट लाई। 2017 के नगर निगम चुनाव में भाजपा का ही दबदबा रहा। आप दूसरे नंबर पर रही। 2019 लोकसभा चुनाव आते-आते कांग्रेस के ज्यादातर नेताओं के हौसले पस्त हो गए और वे अपने वजूद को खत्म करने वाले आप के सामने समर्पण करने को तैयार हुए।

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15 साल दिल्ली की मुख्यमंत्री रही शीला दीक्षित जब इसमें आड़े आईं तो उनकी पार्टी के ही नेताओं ने उनका रास्ता रोक दिया। इसका लाभ कांग्रेस को मिला। कांग्रेस सात में से पांच सीटों पर दूसरे नंबर पर आई। इतना ही नहीं, कांग्रेस को दिल्ली में फिर से पैर जमाने का आधार दे दिया। भले ही सत्ता की खुमारी न उतार पाने वाले कांग्रेसी नेता इसका तब लाभ न उठा पाए, लेकिन उन्हें ठौर तो मिल गया।
(यह लेखक के निजी विचार हैं।)

-मनोज कुमार मिश्र

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