आजादी के 75 साल में देश में बहुत कुछ बदलाव आ चुका है। कृषि से लेकर तकनीक तक के मामले में हम न केवल आत्मनिर्भर बन चुके हैं बल्कि दुनिया का मार्गदर्शन भी करने लगे हैं। इतने वर्षों में यदि कुछ नहीं बदला है तो वह है महिलाओं के खिलाफ हिंसा। आज हमारे देश में महिलाओं को घर से लेकर बाहर तक और बाजार से लेकर कार्यस्थल तक किसी न किसी रूप में लैंगिक हिंसा का सामना करना पड़ता है।
न केवल यौन हिंसा बल्कि दहेज के नाम पर भी उसके साथ अत्याचार का सिलसिला जारी रहता है। यह वह हिंसा है जिसमें पूरा परिवार सामूहिक रूप से लड़की पर अत्याचार में शामिल रहता है। पढ़े लिखे और खुद को मॉडर्न कहने वाले समाज में भी दहेज के नाम पर महिला के साथ हिंसा होती है तो ग्रामीण क्षेत्र भी इससे अछूता नहीं है।
किसी समय में दहेज का अर्थ इतना वीभत्स और क्रूर नहीं था, जितना आज के समय में हो गया है। दरअसल दहेज, शादी के समय पिता की ओर से बेटी को दिया जाने वाला ऐसा उपहार है जिस पर बेटी का अधिकार होता है। पिता अपनी बेटी को ऐसी संपत्ति अपनी स्वयं की इच्छा से देता था और अपनी हैसियत के मुताबिक देता है। आज इसका स्वरुप बदल गया है। लोग दहेज की खातिर हिंसा पर उतारू हो गए हैं।
दहेज न मिलने पर लोग अपने बेटे की शादी तक रोक देते है। आए दिन हमें ऐसे कई केस देखने और सुनने को मिल जाते हैं जहां लड़का पक्ष दहेज नहीं मिलने पर बारात लाने से इंकार कर देते है या फिर इच्छानुसार दहेज नहीं मिलने पर लड़की के साथ जुल्म की इंतेहा कर देते हैं। ऐसा कृत्य करने से पहले वह जरा भी नहीं सोचते हैं कि उस माता-पिता पर क्या गुजरती होगी जिसने खुशहाल जिंदगी की कल्पना कर अपनी बेटी की शादी की होगी और हैसियत के अनुसार दहेज दिया होगा।
दहेज की इस कुप्रथा से उत्तराखंड के बागेश्वर जिला स्थित गरुड़ ब्लॉक का जोड़ा स्टेट गांव भी अछूता नहीं है। करीब 1784 लोगों की आबादी वाले इस गांव में शिक्षा की दर 50 प्रतिशत है। जो राष्ट्रीय औसत 77.70 प्रतिशत की तुलना में कम है। इस गांव में दहेज जैसी लानत के पीछे महिलाओं में साक्षरता की दर का काफी कम होना भी एक कारण है। सवर्ण जाति बहुल इस गांव में महिलाओं की साक्षरता दर मात्र 20 प्रतिशत ही दर्ज की गई है।
हालांकि गांव में जैसे-जैसे बालिका शिक्षा की दर बढ़ रही है, वैसे-वैसे दहेज प्रथा के खिलाफ आवाज भी उठने लगी है। इस संबंध में कक्षा 11 में पढ़ने वाली गांव की एक किशोरी पूजा गोस्वामी का कहना है कि शिक्षा से हमें यह पता चल गया है कि यह एक सामाजिक बुराई है। दहेज लेना और देना दोनों ही कानूनी अपराध है। हम खुद सोचते हैं कि हम इतना पढ़ लिख कर अपने पैरों पर खड़े हो जाएं कि अपने मां-बाप पर बोझ न बनें जैसे कि दुनिया कहती है कि बेटियां बोझ होती हैं।
शिक्षा के माध्यम से हम लड़कियां अपने आगे लगे यह बोझ शब्द को खत्म कर सकती हैं ताकि जब किसी परिवार में लड़की जन्म ले तो उसके पैदा होने पर खुशियां मनाई जाए। क्योंकि वास्तव में बेटी पैदा होने पर उसके लिए इतना दहेज जोड़ना पड़ता है कि माता पिता बोझ समझने लगते हैं।
स्नातक प्रथम वर्ष की छात्रा खुशबू का कहना है कि यह सभी जानते हैं कि दहेज लेना और देना गलत बात है। लेकिन आजकल लोग बिना दहेज के मानते ही नहीं हैं। लड़का पक्ष से यह कहते जरूर सुना जा सकता है कि हमें बस लड़की चाहिए, आप एक जोड़े कपड़े में अपनी लड़की को विदा कर दो। लेकिन उसके आगे का शब्द ‘बाकी जो आपकी मर्जी आप अपनी लड़की को जो देना चाहे।’
दरअसल यही शब्द दहेज देने की ओर इशारा होता है। वास्तव में अगर एक जोड़े में कोई अपनी लड़की को विदा कर दे तो ससुराल वाले उसकी इज्जत नहीं करते हैं। खुशबू का कहना है कि दहेज लेने में समाज का भी पूरा समर्थन होता है। ससुराल में जब लड़की पहुंचती है तो उसे डोली से उतारने से पहले समाज यह जानने को उत्सुक होता है कि वह कितना दहेज लाई है?
तनुजा भंडारी