Editorial: इटली जैसे देश में सरकारी और गैर सरकारी नौकरियों में युवाओं की रुचि घट रही है। पिछले एक दशक में कृषि, पशुपालन, डेयरी, कृषि पर्यटन क्षेत्र में युवाओं की भागीदारी एक प्रतिशत बढ़ी है। इस देश में युवा अच्छी नौकरियां छोड़कर खेती-बाड़ी की ओर पलायन कर रहे हैं। पिछले एक दशक में कारोबार के कई क्षेत्रों में 35 साल से कम उम्र के युवाओं में काफी गिरावट आई है। लेकिन हमारे देश में ठीक इसका उलटा हो रहा है। भारत में युवा खेती करना नहीं चाहते हैं। वे सरकारी और निजी नौकरियों की तलाश में शहर भाग रहे हैं।
शहरों में छोटी-मोटी नौकरियां करके अपना और अपने परिवार का पेट पाल रहे हैं, लेकिन खेती करने को तैयार नहीं हैं। इटली और भारत में फर्क क्या है? ऐसा हो क्यों रहा है? इसका कारण यह है कि इटली के युवा शहरी जीवन से ऊब रहे हैं। जिसके पास भी पूर्वजों की गांवों में जमीन है या जिनके पास गांवों में जमीन खरीदने भर की पूंजी है, वे शहरी जीवन से पलायन कर रहे हैं। गांवों का शांत वातावरण और कुछ नया करने का जज्बा उन्हें खेती-बाड़ी, पशुपालन और डेयरी उद्योग की ओर खींच रहा है। इटली में पिछले साल रोजाना औसतन 17 नए कृषि व्यवसाय शुरू हुए हैं। इटली सरकार ने खेती के लिए 13 हजार करोड़ रुपये की सब्सिडी की घोषणा की है। वहां खेती करने वालों को सरकार आकर्षक सुविधाएं प्रदान कर रही है।
कृषि उत्पादों से जुड़े कारोबार करने वाली कंपनियां भी उन्हें अच्छा मुनाफा दे रही हैं, उनके उत्पादों को खरीदने के लिए उनके स्थान पर पहुंच रही हैं। अपने कृषि उत्पादों के लिए उन्हें परेशान नहीं होना पड़ता है। यही वजह है कि 35 साल से कम उम्र के युवा शहर से गांव की ओर पलायन कर रहे हैं। हमारे देश में कृषि क्षेत्र पर न तो सरकार पर्याप्त ध्यान देती है, न निजी कंपनियां। भारत में कृषि उत्पादों को खरीदने के लिए सरकार ने मंडियां तो बनाई, वहां पैदा होने वाली असंगतियों और अव्यवस्थाओं ने लक्ष्य से किसानों को बहुत दूर कर दिया। मंडियों तक पहुंचने वाले किसानों के साथ होने वाला व्यवहार और उनके अनाजों की खरीद में बरती जाने वाली लापरवाही और भेदभाव उन्हें हतोत्साहित करता है।
भारत में किसानों का एक बहुत बड़ा समूह कर्जदार है। वह अपने कर्ज के बोझ से उबर ही नहीं पाता है कि उस पर नया कर्ज लद जाता है। यह कर्ज बैंकों से लिया गया होता है, सूदखोरों से लिया गया होता है और ये लोग कर्ज वसूलने का जो रवैया अपनाते हैं, वह किसानों के लिए बहुत अपमानजनक होता है। उनके अनाज को भी औने-पौने दामों में खरीदा जाता है। यदि यूरोपीय देशों की तरह खाद्य उत्पादों से जुड़ी कंपनियां सीधे किसानों तक अपनी पहुंच बनाएं, उनको अपने मुनाफे में हिस्सेदारी दें यानी कि उत्पादों की इतनी कीमत लगाएं कि किसान को ठीकठाक मुनाफा हो, तो यहां भी किसानों की दशा सुधर सकती है। लेकिन ऐसा होता नहीं है। सरकारी और निजी कंपनियां सिर्फ अपना फायदा देखती हैं, नतीजा यह होता है कि युवा खेती से दूर होते जा रहे हैं।
- संजय मग्गू