देश रोज़ाना: देश के जिन पांच राज्यों में विधानसभा के चुनाव होने जा रहे हैं, उनमें सिर्फ राजस्थान ही एक ऐसा राज्य है जहां से भाजपा को ज्यादा उम्मीदें हैं। राजस्थान में पिछले तीस सालों से हर पांच साल में सरकार बदल जा रही है। इस बीच वहां चुनावी घमासान में ईडी की भी एंट्री हो गई है। ताबड़तोड़ पड़े छापों से न सिर्फ कांग्रेस बल्कि मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के पारिवारिक कुनबे में हड़कंप है। इस हड़कंप के मायने तब और बढ़ जाते हैं, जब हम हाल में हुए चुनावी सर्वे में जाहिर हुई संभावना को देखते हैं। एबीपी-सी वोटर के सर्वे में बताया गया है जिन सूबों में चुनाव हो रहे हैं उनमें राजस्थान छोड़ बाकी चार राज्यों में भाजपा की स्थिति बेहद खराब है। अकेला राज्य राजस्थान ही है जहां भाजपा को बढ़त मिलती दिख रही है।
बहरहाल मौजूदा सूरतेहाल को गहराई से देखें-परखें तो भाजपा के लिए राजस्थान में स्थिति बहुत आसान भी नहीं है। सी वोटर के सर्वे से कुछ दिनों पहले टाइम्स नाउ ने भी एक सर्वे किया था। उस सर्वे के अनुसार भाजपा को राजस्थान में भी सरकार बनाने के लिए कांग्रेस से कड़ी टक्कर लेनी होगी। राज्य में दोनों पार्टियों में कांटे का मुकाबला है। दोनों पार्टियों को 42-42 प्रतिशत वोट मिलने की उम्मीद है। सर्वे के अनुसार निर्दलीय और अन्य पार्टियां 3-6 सीटों पर जीत हासिल कर सकती हैं।
दरअसल, राजस्थान में पहले जरूर सरकार बदलने की संभावना ज्यादा दिख रही थी, लेकिन अब भाजपा में मचे घमासान को देखते हुए कुछ भी कहना मुश्किल हो रहा है। कुछ अरसे पहले तक माना जा रहा था कि कांग्रेस में धड़ेबाजी है और इसका असर विधानसभा चुनावों पर पड़ेगा। वहां मुख्यमंत्री अशोक गहलोत सरकार में शामिल रहे उप मुख्यमंत्री सचिन पायटल ने गहलोत सरकार के खिलाफ खुलेआम बगावत का झंडा बुलंद कर दिया था। लेकिन अशोक गहलोत के कुशल नेतृत्व और कांग्रेस हाईकमान की सूझबूझ से मामला लगभग सुलझ गया। मल्लिकार्जुन खड़गे के कांग्रेस का अध्यक्ष बनने के बाद राहुल गांधी के साथ मिलकर प्रयास किया और दोनों नेताओं के बीच की दूरियों को पाटने में कामयाबी मिली। उसी का नतीजा रहा कि चुनाव आयोग के चुनावों की घोषणा करते ही सबसे पहले सचिन पायलट ने ऐलान किया कि हम मिलकर चुनाव लड़ेंगे और सरकार बनाएंगे।
दूसरी ओर भाजपा में माना जा रहा था कि सत्ता में आने के लिए भाजपा पूरी जोर-शोर से चुनाव अभियान शुरू करेगी लेकिन यहां सब कुछ उलटा हुआ। भाजपा में नरेंद्र मोदी-अमित शाह की जोड़ी ने पूर्व मुख्यमंत्री और राजस्थान में पार्टी की सबसे कद्दावर नेता वसुंधरा राजे को किनारे लगाने का मन बना लिया। उसने 41 उम्मीदवारों की जो पहली सूची जारी की उसमें न तो वसुंधरा राजे का नाम था और न ही उनके करीबियों का। उसका नतीजा ये निकला है कि पार्टी वहां दो भागों में विभाजित हो गई। पार्टी का स्थानीय सबसे ताकतवर धड़ा वसुंधरा के साथ है तो केंद्रीय नेतृत्व उनकी अनदेखी करके आगे बढ़ता हुआ दिख रहा था। लेकिन पार्टी हाई कमान को जल्दी ही समझ में आ गया कि बगैर वसुंधरा को साथ लिए चुनावी जंग नहीं जीती जा सकती। ऐसा लगता है कि भाजपा आलाकमान ने नाक की लड़ाई छोड़कर वसुंधरा के आगे सरेंडर करना उचित समझा। उसने उम्मीदवारों की जो दूसरी सूची जारी की उसमें न केवल वसुंधरा राजे को उनकी पुरानी सीट से टिकट दिया बल्कि उनके करीबी लोगों को भी ऐडजस्ट किया।
विधानसभा चुनाव में भाजपा का असल पाला राज्य में कांग्रेस के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत से है। उन्होंने अपने अच्छे कार्यों से जनता का दिल जीता है। उन्होंने चिरंजीवी स्वास्थ्य बीमा गारंटी कानून जिसमें राज्य के हर किसी का 25 लाख तक का इलाज मुफ्त होता है, महंगाई राहत कैंप, जातीय जनगणना, एससी, एसटी, ओबीसी का आरक्षण बढ़ाना, 500 रुपये में गैस सिलेंडर देना और साथ ही सामाजिक सुरक्षा गारंटी की योजनाएं बनाकर सत्ता विरोधी लहर को जहां दूर किया है वहीं केंद्र की सत्ता विरोधी लहर का फायदा उठाने की कोशिश की है। अब देखना यह है कि ऊंट किस करवट बैठता है। (यह लेखक के निजी विचार हैं।)
– अमरेंद्र कुमार राय