महात्मा गांधी को ‘वैष्णव जन तो तेने रे कहिए जे पीड़ पराई जाणे रे’ पद बहुत पसंद था। इसकी रचना नरहरि दास (नरसी मेहता) ने किया था। नरसी मेहता को तुलसीदास और मीराबाई का समकालीन माना जाता है। गुजराती साहित्य में नरसी मेहता को वही स्थान हासिल है जो भक्त कवियों में सूरदास आदि का है। कहा तो यह भी जाता है कि मीराबाई ने जब राजस्थान को छोड़ा तो वे नरसी मेहता से मिलने सौराष्ट्र (गुजरात) भी गई थीं, लेकिन उनके पहुंचने से पहले ही नरसी मेहता की मृत्यु हो गई थी। एक बार की बात है। एक गांव के कुछ लोग उनके पास पहुंचे और कहा कि क्या आप मेरे घर सत्संग करने चलेंगे। हम लोग अंत्यज (छोटी जाति) हैं।
नरसी मेहता ने तत्काल कहा कि मैं बिल्कुल चलूंगा। आप जाकर तैयारी करें। अगले दिन नियत समय पर नरसी मेहता उस व्यक्ति के घर पहुंचे। मौके पर उस व्यक्ति के परिजन और गांव वाले इकट्ठा थे। सबने नरसी मेहता को अभिवादन किया। फिर सत्संग हुआ और प्रसाद बांटा गया। नरसी मेहता ने भी प्रसाद ग्रहण किया। जब वह घर लौटे तो उनके गांव के मुखिया ने कहा कि आपने छोटी जाति के लोगों के हाथ का प्रसाद ग्रहण किया है।
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आपको अपनी जाति में नहीं रखा जा सकता है। तब नरसी मेहता ने कहा कि जहां पर पूजापाठ या सत्संग होता है, तो वहां पर इकट्ठा व्यक्ति एक ही जाति के हो जाते हैं। वहां पर ऊंच-नीच का कोई महत्व नहीं होता है। इस दलील को न मानते हुए गांव के मुखिया ने उनको जाति से बहिष्कृत कर दिया। इस पर नरसी मेहता ने मुखिया को धन्यवाद देते हुए कहा कि आपने मुझे जाति बंधन से मुक्त करके बड़ी जाति से जुड़ने का मौका दिया, इसके लिए आपका आभार। इसके बाद नरसी मेहता कृष्ण भक्ति का प्रचार करने में जुट गए। पूरा गुजरात उनका मुरीद हो गया।
-अशोक मिश्र
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