धर्म की राजनीति या फिर राजनीति का धर्म। यह सवाल एक बार फिर हवा में है। राम के नाम पर राजनीति या फिर राजनीति राम पर। राम का सियासीकरण या फिर राम मय भारत। विपक्ष का आरोप है कि राम के आसरे बीजेपी देश की सामाजिक और सांस्कृतिक परिदृश्य को बदलना चाहती है। राम का राजनीतिकरण कर रही है। रामलला के उद्घाटन को सियासी इवेंट बना दिया है। जबकि इस देश में राम के प्रति आस्था रखने वालों के लिए राम मंदिर, धार्मिक भावना है। जब राम मंदिर नहीं बना था, तब विपक्ष कहता था बीजेपी वाले राम मंदिर बनाएंगे, मगर तारीख नहीं बताएंगे।
अब जब 22 जनवरी 2024 को राम मंदिर के उद्घाटन का दिन निहित हो गया तो इसे इंडिया गठबंधन सियासी इवेंट कह रहा है। दरअसल राम मंदिर को लेकर विपक्ष में एक सियासी खौफ है। कहीं धर्म की राजनीति हावी न हो जाए 2024 के चुनाव में। इंडिया गठबंघन की बातें और उनके डर से, क्या यह मान लिया जाए कि अयोध्या से इस बार खुलेगा दिल्ली का द्वार। इसीलिए बीजेपी बोल रही है, अबकि बार चार सौ के पार। राम नाम से यदि सत्ता का कमल खिलता है, तो फिर बाबरी मस्जिद गिरने पर कल्याण की सरकार की वापसी होनी चाहिए थी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ।
इंडिया गठबंधन को लगता है, राम मंदिर के उद्घाटन सियासी इवेंट बताने से आस्था का आवेग रुक जाएगा। जबकि यह दौर धर्म की राजनीति का है। मंदिर का है। और बीजेपी भी, मोदी के दौर की है। बीजेपी का हिन्दू और हिन्दुत्व दोनों नये दौर में उफान पर है। यही परिदृश्य सन 1980 में शिवसेना को लेकर था। उसे हिन्दू राजनीति वाली पार्टी मान लिया गया था। लेकिन अब वो इंडिया गठबंधन में है। बाल ठाकरे जिस मकसद से शिवसेना का गठन किया था,अब वो मकसद गुम हो गया। बीजेपी हिन्दू राजनीति के घोड़े पर सवार है।
इसलिए मोदी कह रहे हैं, देश के 140 करोड़ देशवासियों 22 जनवरी को जब अयोध्या में रामलला विराज रहे हों, तब अपने-अपने घरों में राम ज्योति जलाएं। जाहिर है कि, बीजेपी राम के आसरे 2024 का चुनाव जीतना चाहती है। यानी यह मान लिया जाए कि 22 जनवरी के बाद देश का राजनीतिक मंजर बदल जाएगा। राजनीति का धर्म भी बदल जाएगा। कहा यही जा रहा है कि यह दौर आस्था का है। मंदिर का है। धर्म की राजनीति का है। तभी तो विपक्ष के 146 सांसदों को निलंबित कर दिये जाने के बाद भी, देश में एक आवाज तक नहीं उठी।
सवाल यह है कि क्या बीजेपी राम के आसरे पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र और बिहार को साधेगी। देश में हिन्दू राष्ट्र का शोर विपक्ष मचा रहा है। वहीं आदिवासियों के भीतर एक नारा उठ रहा है। कुल देवी तुम जाग जाओ। धार्मातरण तुम भाग जाओ। जो भोले नाथ का नहीं, वो हमारी जाति का नहीं। जाहिर सी बात है कि मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड, ओड़िसा, राजस्थान और त्रिपुरा आदि राज्यों में आदिवासियों को प्रभावित करने वाला नारा अपनी एक अलग पहचान बना रहा है। मणिपुर के धार्मिक स्थलों में आग लगाए जा रहे हैं। आदिवासियों को अपनी ओर खीचने के लिए।
वहीं हिन्दी पट्टी को बीजेपी अपने रंग में रंगना चाहती है। राम के आसरे वह कितने राज्यों को जीत लेगी, स्वयं बीजेपी भी नहीं जानती। राहुल की न्याय यात्रा से कांग्रेस को वोट मिल सकता है,तो फिर राम मंदिर से बीजेपी के पक्ष में राजनीति के करवट बदलने पर एतराज क्यों? विरोध क्यों? खिलाफत क्यों? राम जब सबके हैं,तो इंडिया गठबंध को यह नहीं कहना चाहिए, कि राम के आसरे बीजेपी देश की राजनीति का मिजाज बदलना चाहती है।
जिन्हें लगता है,कि बीजेपी न होती तो राम मंदिर न बनता, वो बीजेपी के साथ हो लेंगे। और जिन्हें लगता है,कि राम मंदिर बनने से देश का सामजिक परिदृष्य और सांस्कृतिक धारणाएं नहीं बदलेंगी,उन्हें विरोध नहीं करना चाहिए। अधूरे राम मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा नहीं होनी चाहिए। प्राण प्रतिष्ठा का अधिकार साधु-संत और शंकराचार्यो का है। देश के प्रधान का नहीं। उनके तर्क से जो सहमत होंगे 2024 के चुनाव में उनके वोट किसी और को जाएंगे। मगर,मतदाता की सोच को कोई भी पार्टी नहीं बदल सकती।
(यह लेखिका के निजी विचार हैं।)
-रमेश कुमार ‘रिपु’