नीलोफर हाशमी
एक महिला को क्या इतना भी हक नहीं है कि वह मनाली जा सके। दिसंबर के महीने में मनाली में वह अपनी बेटियों के साथ बर्फ के गोले हवा में उछालते हुए खुश हो सके। वह वीडियो बनाती अपनी बेटियों से कह सके कि मैं बहुत खुश हूं। वह भी सिर्फ इसलिए कि वह महिला विधवा है। सिर्फ इसलिए कि वह महिला मुसलमान है। हिंदू, मुसलमान, सिख, ईसाई, यहूदी या पारसी होने से पहले वह महिला एक इंसान है। उसकी बेटी ने यह वीडियो जब सोशल मीडिया पर डाला, तो एक मुस्लिम धर्म गुरु ने महिला की आलोचना की। उस धर्म गुरु ने कहा कि विधवा महिला को इस तरह से घूमने और बर्फ से खेलने के बजाय घर में कुरान पढ़ना चाहिए। बस, फिर क्या था? लोगों को तो मसाला मिलना चाहिए। सही या गलत को लेकर सोशल मीडिया पर बहस शुरू हो गई। बात पिछले साल की है। केरल की एक महिला जिसके पति की 25 साल पहले मौत हो गई थी। उसने अपनी बेटियों को बहुत संघर्ष करके पाला-पोसा, पढ़ाया लिखाया। उनकी अपनी कूबत भर पैसा जुटाकर शादी-विवाह किया। उसकी बेटियां भी अब बाल-बच्चे वाली हो गई हैं। ऐसी स्थिति में जीवन भर संघर्ष करके अपने परिवार का पालन पोषण करने वाली महिला को क्या इतना भी हक नहीं है कि अब वह अधेड़ावस्था में थोड़ा सा सुकून महसूस कर सके। अपनी मर्जी से पहाड़ों पर जाकर बर्फसे बच्चों की तरह खेल सके।
इस उम्र में उसे कुरान पढ़ना चाहिए या नहीं, यह महिला के ऊपर निर्भर है। यदि वह इस्लामी नियम और कायदे को मानती है, तो उसे जरूर इस्लामी रिवायतों का पालन करना चाहिए। इसमें शायद ही किसी को ऐतराज हो। सवाल सिर्फ मुसलमान का नहीं है। हर हिंदू, मुसलमान, सिख, ईसाई और अन्य धर्म को मानने वाले स्त्री और पुरुष पूरी तरह स्वतंत्र हैं कि वह अपनी आस्था और विश्वास के आधार पर पूजा-पाठ करें, इबादत करें। हिंदू मान्यता के अनुसार, हिंदू अपना व्रत त्यौहार मनाएं, इस्लामी रवायत के मुताबिक मुस्लिम स्त्री और पुरुष दिन में पांच बार नमाज अता करें और कुरान पढेÞ। सिख समुदाय जब और जैसे चाहें गुरु ग्रंथ साहिब का पाठ करें। गुरुद्वारों में जाकर अरदास करें।
लेकिन कोई यह कहे कि अमुक धर्म, जाति या संप्रदाय की स्त्री को खुश होने का अधिकार नहीं है। वह अपनी बेटे-बेटियों और नाती-पौत्रों के साथ खेल नहीं सकती, ठहाके नहीं लगा, विधवा है, इसलिए उसे खुश होने का अधिकार नहीं है, तो यह शायद इंसानियत के खिलाफ है। कोई भी धर्म या मजहब हो, इंसान की खुशी के बीच कभी बाधा नहीं बना है। जब से महिला की धर्म गुरु ने आलोचना की है, तब से महिला काफी परेशान है। लोग उसके बारे में तरह-तरह की चर्चा कर रहे हैं। कहां तो वह अपने कठिन जीवन को भुलाकर 55 साल की उम्र में थोड़ा सा सुख खोजने के लिए मनाली गई थी। कहां महज एक टिप्पणी ने उसे परेशानी में डाल दिया है। वह समझ नहीं पा रही है कि बर्फके गोले बनाकर अपनी बेटियों या नाती-नातिनों पर फेंकना कहां से इस्लाम विरोधी हो गया।
स्त्री चाहे जिस धर्म या मजहब की हो, सबसे ज्यादा बंदिशें उसी पर डाली जाती हैं। पितृसत्ताक व्यवस्था में जितने नियम, कायदे और परंपराएं हैं, वह सब महिलाओं के सिर पर डाल दिए गए हैं। पुरुषों को सारे अधिकार हैं। वह चाहे अच्छा करे या बुरा, उसे सब माफ है। अगर उसने कोई आपराधिक कृत्य नहीं किया, तो समाज उसकी गलतियों पर ध्यान ही नहीं देता है। लेकिन अगर स्त्री से अनजाने में ही कोई भूल हो गई, तो उसको टोकने, भला बुरा कहने से यह पुरुष समाज कभी नहीं चूकता है। अब इस केरल की महिला की ही बात लीजिए। उसके पति की मौत हुए 25 साल हो गए हैं। उसकी उम्र पचपन साल की हो गई है। जीवन भर उसने संघर्ष किया। अब अगर थोड़ा सा हंस लिया, तो क्या गुनाह किया।
(यह लेखिका के निजी विचार हैं।)
महिला को क्या खुश होने का भी हक नहीं?
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