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संतो! मानुष तन बौराना

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अपने समय के समस्त रूढ़ियों, अंधविश्वासों और संकीर्णताओं से टकराने वाले क्रांतिकारी और विद्रोही कवि कबीर जीवन-जगत के यथार्थ और आत्मा के मर्म को समझकर निरंतर समाज से वैचारिक स्तर पर संघर्ष करते हुए साधना तथा सृजन रत रहे। कबीर लड़ रहे थे अपने समय के अनेक पाखंडों और पाखंडियों से। यह पाखंडी धर्म, मजहब, जाति, संप्रदाय और ऊंच-नीच के नाम पर भी समाज को तोड़ रहे थे, लोगों के बीच वैमनस्य बढ़ाते हुए अपने वर्चस्व को स्थापित कर रहे थे। मंदिर-मस्जिद के नाम पर जो घृणा के बीज बोए जा रहे थे कबीर उनको अपनी वैचारिकता से समूल नष्ट करने के लिए सदा तत्पर रहते थे। एक तरफ हिंदुत्व के ढकोसला और पुरोहितवाद पर प्रहार कर रहे थे –

पाहन पूजै हरि मिले, तो मैं पूजूं पहाड़!

ताते यह चक्की भली, पीस खाए संसार!!

तो दूसरी तरफ मस्जिद में बैठकर अंधत्व और मूढ़ता को फैलाने वाले मौलवियों को ललकारते हुए अपने विवेक पूर्ण तर्क से समझा रहे थे –

कांकड़ पाथर जोरि के, मस्जिद दिया बनाय!

ता चढ़ी मुल्ला बांग दे, बहरा हुआ खुदाय?

यह जलते हुए प्रश्न समाज के बुद्धिजीवियों से भी लगातार कबीर कर रहे थे। वे उनकी जड़ता की जड़ पर प्रहार कर रहे थे। समाज में फैले हुए द्वेष, घृणा, अहंकार और मूर्खता के जाल को काटते हुए कबीर व्यक्ति को उसकी आंतरिक शक्ति का बोध करा रहे थे –

 जो तिल मांही तेल है, ज्यों चकमक में आग!

तेरा साईं तुज्झ में, जाग सकै तो जाग!!

         विराट प्रकृति अनेक चर- अचर जीवों के वैविध्य से संपन्न हैं। प्रकृति का वैभव और सौंदर्य फैलै हुए वनस्पति जगत और जंतु जगत से आकर्षक, सम्मोहक तथा जीवंत है। समस्त प्राणियों में मनुष्य अद्भुत और विचित्र प्राणी है। मनुष्य के पास अन्य प्राणियों से भिन्न जो है वह है उसका विवेक। यह विवेक ही मनुष्य को सर्वश्रेष्ठ बनाता है। मनुष्य प्रकृति  और परमात्मा का अगर सही प्रतिनिधित्व करता है तो उसके होने की व्यापक सार्थकता सिद्ध होती है। मनुष्य वाह्य आकृतियों में नहीं अंतश्चेतना की असीम शक्ति में सन्निहित होता है। बाहर जो दिखता है वह तो भौतिक है, जिसकी नियति परिवर्तित और नष्ट होना है। सच्चा और वास्तविक स्वरूप तो भीतर स्थित होता है जो शाश्वत और अविनाशी है। कबीर मनुष्य की भीतरी शक्ति को परमात्म स्वर की बुलंदी से भरते हुए कहते हैं –

‘मो को कहां ढूंढे रे बंदे, मैं तो तेरे पास में

ना मैं देवल ना मैं मस्जिद, ना काबे कैलास में!

इसके लिए निरंतर साधना और सजगता की अनिवार्यता पर कबीर जोर देते हैं। उनका मानना है कि सच्ची साधना कभी निष्फल नहीं जाती है। परमात्मा के आनंद के बीच रहते हुए भी मनुष्य अनेकानेक दुखों को झेल रहा है। वह आनंद के स्पर्श से वंचित हैं। ज्ञानी कबीर अहंकार ग्रसित मनुष्य की अज्ञानता पर हंसते हुए प्यार से उसे समझाते हैं – ‘पानी बिच मीन पियासी, मोहे सुनि सुनि आवत हांसी।’ मनुष्य को साधना के पथ पर अग्रसर होने के लिए ज्ञान का आलोक देते हैं और पूरे विश्वास के साथ समझाते हैं कि आप जितना गहरे डूबेंगे उतना ही जीवन के मर्म, जगत के सत्य और परमात्मा के आनंद को अनुभूत करेंगे। यह अनुभूति आपको आनंद से तटस्थ नहीं रहने देगी बल्कि आप आनंद में अंतर्भुक्त हो जाएंगे, आप आनंदमय हो जाएंगे, आप परमात्मा में अंतर्लीन हो जाएंगे –

लाली देखन लाल को, जित देखौं तित लाल!

लाली देखन मैं गई, मैं भी हो गई लाल!!

        कबीर संत थे! सौम्य, शांत और साधक। कबीर विद्रोही थे! रूढ़िभंजक, पाखंड मदमर्दक और धर्म-ढकोसला ध्वंसकारी। कबीर अक्खड़ थे! दो टूक बोलना, खरी खरी सुनाना और निर्भीकता से अपनी बात कहना। वे समाज सुधारक, युग निमार्ता, भविष्य दृष्टा और युगांतरकारी थे। अपने समय के पाखंडी धमार्चार्यों, शोषक जमींदारों, क्रूर शहंशाहों तथा निरंकुश तानाशाही  सत्ताधीशों से वे डरते नहीं थे बल्कि उनकी धूर्तता, कपटता और छल फरेब को समाज के बीच घूम घूम कर उजागर करते थे। उन पर मौलवियों ने काफिर होने का इल्जाम लगाया तो पंडितों ने समाज को भ्रष्ट करने का दोष मढ़ा। कबीर कर्मशील एक ऐसे योद्धा थे जो अपने जीवन यापन के लिए छोटे से धंधे को करते हुए समाज में फैली हुई कुरीतियों के विरुद्ध निडर होकर लड़ते रहे। उन्होंने धर्म के दिखावे से प्रभावित ढब रचने वाले तथा स्वांग भरने वाले धूर्त धमार्चार्यों को सहज, सरल तथा व्यवहारिक उपमान के माध्यम से सजग करते हुए सावधान किया –

मन न रंगाए रंगाए जोगी कपड़ा

आसन मारि मंदिर में

नाम छाड़ि पूजन लागे पथरा

कबीर ने तो मन को परिमार्जित करने पर सदा बल दिया। उन्होंने बाह्य आडंबर से व्यक्ति, समाज और साधक को बचने की सलाह दी। जिस तन पर मनुष्य अभिमान करता है वह नाशवान है और जिस मन की उपेक्षा करता है उस मन को साधते हुए वह अपने भीतर के शाश्वत सत्य को जान समझ सकता है। कबीर कहते हैं –

माला फेरत जुग गया, गया न मन का फेर

कर का मनका छारिकै मन का मनका फेर!!

कबीर जीवन के धर्म, मनुष्य के कर्म और मन के मर्म को भली-भांति जानते थे। उनकी गति में बाधक बनकर संकटों के पहाड़ आते रहे लेकिन वे कभी रुके नहीं निरंतर आगे बढ़ते रहे, उनके समाज सुधार अभियान को भ्रमित करने के लिए अनेक इल्जाम लगाए गए मगर वे सतत सत्य के संधान में नि:शंक चरण समाज में बिहरते रहे, वे इस सत्य को जानते थे कि –

दुर्लभ मानुष जनम है, देह न बारम्बार!

तरुवर ज्यों पत्ती झरै, बहुरि न लागे डार!!

तन तो भौतिक है मन का राग अविनाशी होता है। दुर्लभ है मनुष्य जन्म मगर निरर्थकता में व्यतीत होता हुआ उसका क्षण क्षण नष्ट हो रहा है इसका उसे तनिक भी ज्ञान नहीं। भौतिक सुखों की कामना लेकर वह माया मृग की तरह भटक रहा है। परमात्म सुख के संस्पर्श से वंचित  हो कर वह तृष्णा के संजाल में फंसा हुआ अंधकार के गहन गर्त में डूबा हुआ है। कबीर अपने समय की कुटिलताओं के जटिल अंधकार से अपने अंतर्मन के प्रकाश के बूते लड़ते रहे और संसार को सच्चे आनंद की ओर ले जाने के लिए प्रेरित करते हुए आलोकित करते रहे।

      कबीर समाज की स्थिति और समय की दयनीय अवस्था को देखकर दुखी होते रहे मगर बिना निराशा भाव के उसके भीतर जिजीविषा जगाते हुए परमात्मा के ज्ञान का बोध कराते रहे। समस्त जीवो में श्रेष्ठ मनुष्य की अधोगति पर बेहिचक बोलते हुए कबीर ने दो टूक कहा –

साधो देखो जग बौराना

सांची कहौं तो मारन धावै झूठे जग पतियाना

हिंदू कहै मोंहि राम पियारा, तुरुक कहै रहिमाना

कबिरा लड़ि लड़ि दोनों मुए, मरम न एको जाना

धर्म और जाति के नाम पर लड़ने वाले मूढ़ मनुष्यों को कबीर ने जीव जगत की वैज्ञानिक और प्राकृतिक जैविक उत्पत्ति का सच बतलाते हुए कहा –

एक बूंद एकै मल मूतर, एक चाम एकै गूदा

एक ज्योति से सबहिं उपजा कौन बाभन कौन शूदा।

आज लगातार सामाजिक टकराव, राजनीतिक षड्यंत्र और मनुष्य विभाजक समय में कबीर के विचार सच्चे पथ प्रदर्शन के लिए नितांत अनिवार्य हैं। कविताएं लिखी जा रही हैं, समाज सुधार के नारे दिए जा रहे हैं फिर भी मनुष्य को जीवन-सत्य का ज्ञान नहीं हो रहा है और वह लगातार एक दूसरे के साथ हिंसक व्यवहार करता हुआ कट- मर रहा है। षड्यंत्रकारी और उन्मादी इस कुटिल समय में कबीर का जागृत आत्मबोध तथा शब्द-शौर्य नितांत अनिवार्य है। प्रेम ही सर्वोपरि सच है और बिना प्रेम के मनुष्य मनुष्य से क्या प्रकृति और परंपरा से भी नहीं जुड़ सकता है! इसीलिए कबीर कहते हैं –

पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय!

ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय!!

समय के कबीर को मृत्यु से पंजा लड़ाते हुए सच के साथ भले ही उसे अकेला खड़ा होना पड़े लेकिन उसे अपने मनुष्य होने के यथार्थ से तनिक भी नहीं डिगना चाहिए और डटकर संस्कृति को विकृत कर रहे मस्तिष्क को अपनी ज्ञानात्मक साधना- अनुभूति से परिमार्जित तथा परिष्कृत करना चाहिए। आज सब कुछ को बाजार की दृष्टि से देखा जा रहा है। बाजार के मारक और सर्वनाशी व्यवहार के बीच कबीर की तरह उद्घोष करना बहुत जरूरी है –

कबिरा खड़ा बजार में, लिए लुकाठी हाथ!

जो घर जारै आपना, चलै हमारे साथ!!

डॉ संजय पंकज

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