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राजा भर्तृहरि बन गए बाबा भरथरी

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बोधिवृक्ष
अशोक मिश्र
भारतीय जनमानस में बाबा भरथरी का नाम बड़े आदर और सम्मान के साथ लिया जाता है। दरअसल, भरथरी शब्द भर्तृहरि शब्द का अपभ्रंश है। राजा भर्तृहरि उज्जयिनी के सम्राट थे। वह विक्रमादित्य के बड़े भाई बताए जाते हैं। राजा भर्तृहरि के संबंध में कई तरह की किंवदंतियां प्रचलित हैं। कहा जाता है कि उन्हें अपनी रानी पिंगला से अत्यंत प्रेम था, लेकिन रानी पिंगला किसी और के प्रेमपाश में फंसी हुई थी। एक दिन गुरु गोरखनाथ ने अपने ब्राह्मण शिष्य के हाथ अमरफल भेजा। राजा ने वह अमरफल अपनी रानी को दे दिया। रानी ने वह फल राजा के अश्वपाल को दे दिया। अश्वपाल ने वह फल उस राज्य की एक चर्चित नर्तकी को दे दिया। नर्तकी ने वह फल लाकर राजा को भेंट किया, तो राजा को रानी की सारी सच्चाई पता चली। राजा ने अपना राजपाट अपने छोटे भाई विक्रमादित्य को सौंपकर संन्यास ले लिया। बारह साल की तपस्या के बाद एक बार वे उज्जयिनी लौटे, उस समय रात बहुत हो गई थी। ठंड से बचने के लिए उन्होंने एक दुकान के चौबारे में पड़ी लकड़ियों को जला दिया। सुबह जब दुकानदार ने यह देखा, तो उसने अधजली लकड़ी भर्तृहरि के सिर मार दी। सुबह होने पर जब सबने पहचाना, तो विक्रमादित्य और बहुत सारे लोग वहां इकट्ठा हो गए। सबने दुकानदार को दंड देने की बात कही, तो राजा भर्तृहरि ने कहा कि इसे पांच सौ स्वर्ण मुद्राएं उपहार में दे दो। इस मेरा उपकार किया है। संन्यासी होने के बावजूद मैंने राजा जैसा आचरण किया। इसके बाद वह अपने गुरु गोरखनाथ के पास लौट गए। भर्तृहरि संस्कृत के महान कवियों में गिने जाते हैं। उन्होंने शतकत्रय (शृंगार शतक, नीति शतक और वैराग्य शतक) की रचना की। बाबा भरथरी  कहानियां आज भी दोहराई जाती हैं।

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