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हमें किसी की नींद हराम करने का कोई अधिकार नहीं

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संजय मग्गू
लोगों में अब दूसरों की फिक्र करने की आदत खत्म हो रही है। किसी को भी इस बात से कोई मतलब नहीं है कि उनके आधी रात में गाड़ी का देर तक हॉर्न बजाने से आसपास रहने वालों को दिक्कत हो रही होगी। उन्हें बस इस बात की चिंता होती है कि किसी तरह अपने परिवार वालों को जगाकर गेट खोलने के लिए बुलाया जाए। इसके लिए अगर पड़ोसियों की नींद खराब होती है, तो उनकी बला से। वैसे तो हर आदमी को अपनी जरूरत के हिसाब से अपनी नींद पूरी करने का हक है। वह जितनी देर तक चाहता है, वह सो सकता है। लेकिन उसके इस हक पर डाका तब पड़ता है, जब दूसरे लोग उसके नींद के हक को दरकिनार करके जोर-जोर से बातचीत करते हैं, गाड़ी का हॉर्न बजाते हैं या फिर अपने घर में चल रही पार्टी में शोर मचाते हैं। शहरों में आए दिन यह देखने को मिल जाता है कि लोग अपने घरों में जब पार्टी या कोई मांगलिक कार्य करते हैं, तो बहुत जोर-जोर से डीजे बजाते हैं, नाचते-गाते हैं, शोर मचाते हैं। नतीजा यह होता है कि आसपास रहने वाले लोगों की नींद टूट जाती है। जिन लोगों की नींद टूटती है, उनमें कोई बच्चा भी हो सकता है जिसको सुबह उठकर परीक्षा देने जाना हो सकता है। कोई बुजुर्ग भी हो सकता है जो बीमार हो और उसे अपनी नींद पूरी करना सेहत के लिए बहुत जरूरी हो। यदि कोई शोर-शराबे को लेकर आपत्ति जताता है, तो लोग लड़ने को तैयार हो जाते हैं। असल,यह लोगों की प्रवृत्ति बनती जा रही है कि उन्हें सिर्फ अपने सुख से मतलब है। पड़ोसियों को किसी प्रकार की परेशानी हो रही है, तो वे क्या करें? यह प्रवृत्ति पिछले दो तीन दशक में नहीं थी। छोटे-छोटे शहरों और गांवों में भी लोग अपने से ज्यादा दूसरों का ख्याल रखते थे। गांव के लोगों को यह पता होता था कि गांव के किस परिवार को क्या तकलीफ है और कौन सा परिवार तकलीफ में नहीं है। वह उसी के मुताबिक आचरण करते थे। रात में यदि कोई जोर-जोर से बात करता था, तो गांव के ही बड़े बुजुर्ग किसी के भी घर के किशोर या युवा को डांट देते थे कि चुप रहो, दूसरे लोग सो रहे हैं। गांव हो या शहर, लोग अपने आसपास के माहौल को लेकर सतर्करहते थे, लेकिन अब ऐसा नहीं होता है। इसका कारण यह है कि शहरों का ही नहीं, अब गांवों का भी विकास हो रहा है। शहर से लेकर गांवों तक लोगों के पास पैसा आ रहा है। लोग ठीक ठाक कमाई कर रहे हैं। आर्थिक स्थिति में सुधार आने से लोग काफी हद तक आत्मनिर्भर हो गए हैं। अब उन्हें किसी की मदद की जरूरत भी नहीं रह गई है। ऐसी स्थिति में वे दूसरों की चिंता करें भी तो क्यों? उन्हें किसी से क्या लेना-देना है? वह आत्मकेंद्रित होते जा रहे हैं। यह आत्मकेंद्रित होना ही समाज पर भारी पड़ रहा है। लोगों की कानूनी और प्राकृतिक अधिकारों पर कुठाराघात हो रहा है। एक समाज के तौर पर हमें यह बात अच्छी तरह से समझ लेनी होगी कि रात सोने के लिए है। हमें किसी की नींद हराम करने का कोई हक नहीं है।

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