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Editorial: मन साफ हो, तो तीर्थयात्रा की जरूरत नहीं

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देश रोज़ाना: संत तुकाराम का जन्म पुणे के देहू गांव में 1598 में हुआ था। संत तुकाराम को तुकोबा भी कहते हैं। महाराष्ट्र में नाम के बाद बा लगाने का चलन है। कहा जाता है कि उनकी पहली पत्नी और पुत्र उन दिनों पड़े अकाल में असमय काल कवलित हो गए थे। उनकी दूसरी पत्नी काफी झगड़ालू किस्म की थीं। इस वजह से वह सांसारिक विषयों में वह विरक्त हो गए थे। उनके मुख से सहज रूप से निकलने वाले उपदेशों को अभंग कहा जाता है। जिसका बाद में उनके शिष्यों ने संग्रह किया। वह मन के बहुत साफ संत थे। यही वजह है कि लोग उनके पास अपनी समस्याओं और चिंताओं को लेकर आते थे। वह सबका निराकरण करते थे।

एक बार की बात है, उनके गांव के कुछ लोग तीर्थयात्रा पर जा रहे थे, तो उनसे भी तीर्थ यात्रा पर चलने को कहा। उन्हें कुछ महत्वपूर्ण कार्य था। उन्होंने मना कर दिया। इस पर लोगों ने एक बार फिर दबाव डाला तो उन्होंने उन लोगों को एक कद्दू देते हुए कहा कि वे लोग इस कद्दू को उनका प्रतिनिधि मानते हुए साथ ले जाएं और जहां भी पवित्र नदियों में वे स्नान करें, इस कद्दू को भी नहला दें। लोग मान गए। तीर्थयात्रा के दौरान उन्होंने उस कद्दू को विभिन्न नदियों में स्नान कराया और जब वापस आए, तो तुकाराम को उन्होंने वह कद्दू सौंप दिया।

तुकाराम ने कहा कि तीर्थयात्रा से आप लोग वापस आए हैं, इसलिए मैं एक भोज दे रहा हूं। आप लोग आइएगा। शाम को उन्होंने उस कद्दू की सब्जी बनवाई और सबको परोसा। खाने पर पता चाल कि कद्दू तीता है। लोगों ने दूसरी सब्जियों को खाया और उसे छोड़ दिया। इस पर तुकाराम ने कहा कि विभिन्न तीर्थों की यात्रा और पवित्र नदियों में स्नान करने के बाद भी यह कद्दू तीता ही रहा। फिर तीर्थयात्रा का फायदा क्या हुआ। मन साफ हो, तो तीर्थयात्रा की कोई जरूरत नहीं है।

  • अशोक मिश्र
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