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J&K: जम्मू-कश्मीर में 370 के मुद्दे पर गहराई राजनीतिक खाई

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जम्मू-कश्मीर में विधानसभा के विशेष सत्र में अनुच्छेद 370 की बहाली के प्रस्ताव को लेकर शुरू हुआ विवाद और भी गहराता जा रहा है। उमर अब्दुल्ला के नेतृत्व वाली नेशनल कॉन्फ्रेंस (नेकां) सरकार द्वारा विशेष दर्जे का प्रस्ताव लाने के बाद राजनीतिक तनाव बढ़ गया है। प्रस्ताव के बाद सत्तापक्ष और विपक्ष के बीच हुई तीखी बहस ने जम्मू और कश्मीर के राजनीतिक और सामाजिक फासले को और गहरा कर दिया है।

नेकां का विशेष दर्जे का प्रस्ताव और कश्मीरी वोट बैंक पर नजर

नेकां ने आगामी चुनावों को ध्यान में रखते हुए विशेष दर्जे का प्रस्ताव पारित किया है, जिसमें अनुच्छेद 370 और 35ए का नाम नहीं लिया गया है। इसके जरिए नेकां ने कश्मीर के केंद्रित वोटरों के बीच अपनी स्थिति मजबूत करने की कोशिश की है। इसके उलट भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने इस प्रस्ताव को अनुच्छेद 370 और 35ए से जोड़ते हुए अपने एजेंडे को मजबूती दी है और इसे जम्मू संभाग के मतदाताओं में भुनाने की कोशिश की है।

राजनीतिक विशेषज्ञों का मानना है कि यह प्रस्ताव सीधे तौर पर कश्मीरी वोटरों को साधने के लिए किया गया है। विधानसभा में उमर अब्दुल्ला द्वारा पेश किए गए इस प्रस्ताव को भाजपा ने आलोचना का निशाना बनाया और इसे राष्ट्र विरोधी बताते हुए इस पर तीखी प्रतिक्रिया दी। आगामी पंचायत और निकाय चुनावों के मद्देनजर भाजपा इसे अपना प्रमुख मुद्दा बनाकर जम्मू में अपनी स्थिति मजबूत करना चाहती है।

पीडीपी की चाल और अनुच्छेद 370 की बहाली का प्रयास

इस बीच पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) ने भी अपना दांव खेलते हुए अनुच्छेद 370 और 35ए की बहाली का प्रस्ताव प्रस्तुत किया है। पीडीपी अध्यक्ष महबूबा मुफ्ती ने अपने प्रस्ताव के जरिए कश्मीर में खोई हुई राजनीतिक जमीन वापस पाने की कोशिश की है। इस प्रस्ताव के जरिए उन्होंने जम्मू-कश्मीर के लोगों को यह संदेश देने की कोशिश की है कि उनकी पार्टी अब भी अनुच्छेद 370 और 35ए की बहाली के लिए प्रतिबद्ध है।

राजनीतिक विशेषज्ञों की राय: केवल राजनीति और जनता के मुद्दे पर संवाद की जरूरत

राजनीतिक विशेषज्ञ इसे सिर्फ चुनावी राजनीति मान रहे हैं। उनका मानना है कि विधानसभा में जनता से जुड़े वास्तविक मुद्दों को नजरअंदाज किया जा रहा है और इस पर सत्तापक्ष और विपक्ष को संवाद स्थापित कर जनता के हितों के लिए काम करना चाहिए। जम्मू-कश्मीर के वरिष्ठ पत्रकार राजू केरनी का कहना है कि केंद्र शासित प्रदेश बनने के बाद जम्मू-कश्मीर का यह पहला विधानसभा सत्र ऐतिहासिक माना जा रहा था। लेकिन अफसोस की बात यह है कि जनता के मुद्दों पर गंभीर चर्चा न होने के कारण यह सत्र केवल राजनीति का अखाड़ा बनकर रह गया है।

अनुच्छेद 370 के मुद्दे ने बढ़ाई जम्मू-कश्मीर में खाई

राजनीतिक विशेषज्ञ डॉ. एलोरा पुरी के अनुसार, अनुच्छेद 370 का मुद्दा एक बार फिर जम्मू और कश्मीर के बीच गहरी खाई का कारण बन गया है। उन्होंने कहा कि दोनों संभागों का भौगोलिक, सामाजिक और राजनीतिक परिदृश्य अलग-अलग है। ऐसे में दोनों के सोच और विचारधारा का भी भिन्न होना स्वाभाविक है। उन्होंने कहा कि विधानसभा का असली उद्देश्य जनता की समस्याओं का समाधान करना और उनके हितों की रक्षा करना है, लेकिन मौजूदा सत्र में ऐसा होता नहीं दिख रहा।

जम्मू को अलग करने का सुझाव और विशेष राज्य के रूप में कश्मीर

प्रो. हरि ओम जैसे राजनीतिक विशेषज्ञों का मानना है कि जम्मू और कश्मीर के अलग-अलग राजनीतिक और सामाजिक परिदृश्यों को देखते हुए केंद्र सरकार को इस असाधारण स्थिति से निपटने के लिए असाधारण कदम उठाने होंगे। उन्होंने सुझाव दिया कि जम्मू को कश्मीर से अलग किया जाए और कश्मीर को चंडीगढ़ की तरह एक विशेष केंद्र शासित प्रदेश का दर्जा दिया जाए। इससे दोनों संभागों की समस्याओं का अलग-अलग समाधान किया जा सकेगा और दोनों को उनकी जरूरतों के अनुसार विकास के अवसर मिलेंगे।

वास्तविक मुद्दों पर ध्यान देने की आवश्यकता

विशेषज्ञों के अनुसार, विधानसभा में ऐसे संवेदनशील मुद्दों पर चर्चा करने से बेहतर है कि सत्तापक्ष और विपक्ष जनता के हितों और उनके मुद्दों पर ध्यान दें। राजनीतिक और सामाजिक समस्याओं का समाधान तभी संभव है, जब सत्तापक्ष और विपक्ष मिलकर संवाद स्थापित करेंगे और एकजुट होकर काम करेंगे।

इस विवादित सत्र ने एक बार फिर इस बात को रेखांकित किया है कि जम्मू-कश्मीर की राजनीति में अनुच्छेद 370 एक संवेदनशील मुद्दा है, जो दोनों संभागों के मतदाताओं को प्रभावित करता है। वहीं, आम जनता के मुद्दे जैसे बेरोजगारी, शिक्षा, स्वास्थ्य और सुरक्षा पर चर्चा करना सभी दलों की प्राथमिकता होनी चाहिए, ताकि प्रदेश का विकास संतुलित तरीके से हो सके। (Input: Amar Ujala)

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