संजय मग्गू
पिछली सदी के आठवें-नौवें दशक में जो बच्चे थे, वे अक्सर अपने बचपन को याद करते हैं, तो उन्हें रंग-बिरंगी कुछ कॉमिक्स याद आती हैं। याद आ जाती हैं भारतीय संस्कृति और सभ्यता की पहचान कराने वाली चंदामामा और विज्ञान से रू-ब-रू कराकर वैज्ञानिक सोच पैदा करने वाली विज्ञान प्रगति मैग्जीन। पढ़ने-लिखने वाले लगभग हर बच्चे के स्कूली बैग या घर में चंदामामा, विज्ञान प्रगति, फैंटम, मैंड्रेक, लोटपोट, नागराज, सुपर कमांडो ध्रुव, राजन-इकबाल, बांकेलाल जैसी न जाने कितनी कॉमिक्स और पत्र-पत्रिकाएं मिल जाती थीं। रंग-बिरंगे पन्नों पर रची गई कहानियां एक इंद्रजाल रचती थीं। पढ़ने वाला बच्चा इस इंद्रजाल में खोता चला जाता था। इन कॉमिक्स और पत्रिकाओं के पात्र बच्चों में अनायास ही राष्ट्रप्रेम, भाई-चारे का संदेश देते थे। समाज में फैली बुराइयों के खिलाफ लड़ते कॉमिक्स के पात्र यह भावना अनायास की बच्चों के मन में बिठा देते थे कि जो भी गलत करेगा, वह दंडित होगा। समाज में कैसे रहना चाहिए, समाज किस तरह के लोगों को पसंद करता है, इसकी शिक्षा यह कॉमिक्स अपने कहानियों के माध्यम से देते चलते थे। ये कॉमिक्स और पत्र-पत्रिकाएं बच्चों की कल्पना शक्ति को जहां बढ़ाती थीं, वहीं अपनी पाठ्य पुस्तकों को पढ़ने को भी प्रेरित करती थीं। इन्हें पढ़कर बच्चे मानसिक तौर पर सुकून महसूस करते थे और जब स्कूल की किताबें पढ़ते थे, तो मन शांत होता था। पढ़ाई भी अच्छी तरह से हो जाती थी। लोटपोट के मोटू-पतलू,डॉक्टर घसीटा राम जहां मन को गुदगुदाते थे, हास्य विनोद की प्रवृत्ति को बढ़ावा देते थे, वहीं सुपर कमांडो ध्रुव देशद्रोहियों को सबक सिखाने की प्रेरणा देते थे। उन दिनों आज की तरह टेलीविजन, मोबाइल, इंटरनेट जैसी सुविधाएं उपलब्ध नहीं थीं। बच्चों के मनोरंजन का साधन या तो खेलकूद थे या फिर ये रंगीन कॉमिक्स और पत्र-पत्रिकाएं। यह बच्चे में पढ़ने की प्रवृत्ति पैदा करती थीं। उन दिनों कॉमिक्स पढ़ने वाले अधिकतर लोग भले ही प्रौढ़ हो गए होंगे, लेकिन उनकी पढ़ने की लत शायद ही छूटी हो। इनकी यही उपलब्धि है। एक-एक, दो-दो रुपये में बिकने वाली इन पत्र-पत्रिकाओं और कॉमिक्स ने व्यापार भले ही किया हो, लेकिन समाज का भला भी बहुत किया। इन्होंने अपने पाठकों के माध्यम से एक सभ्य समाज के सभ्य नागरिक के निर्माण में बहुत बड़ी भूमिका अदा की। जाति, धर्म, भाषा, संप्रदाय के नाम पर बिखराव इन पत्र-पत्रिकाओं और कॉमिक्स ने नहीं पैदा किया। इनके प्रकाशक और संपादक अपने कंटेंट पर गहरी नजर रखते थे। वे व्यापार के साथ-साथ समाज का भी भला चाहते थे, तभी तो ये इतनी लोकप्रिय थीं। इंटरनेट के युग में बच्चे क्या पढ़ रहे हैं, क्या देख रहे हैं, क्या सीख रहे हैं, इसका पता पैरेंट्स को नहीं चल पाता है, लेकिन तब बच्चों की पत्र-पत्रिकाएं और कॉमिक्स घर के बड़े-बुजुर्ग तक पढ़ा करते थे और आनंद लेते थे। इस तरह वे अपने बच्चों पर निगाह भी रखते थे कि वे क्या पढ़ रहे हैं?
संजय मग्गू