प्रतिस्पर्धा का हमारे जीवन में बहुत महत्व है। यह प्रतिस्पर्धा ही है जो हमें जीवन में आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करती है। बच्चा अपने घर में छोटे या बड़े भाई-बहन से प्रतिस्पर्धा करता है। उनसे आगे निकलने की कोशिश करता है। स्कूल-कालेज में वह अपने सहपाठियों से आगे, बहुत आगे निकल जाने के लिए प्रतिस्पर्धा करता है। यह प्रतिस्पर्धा का सकारात्मक रुख है। लेकिन जब इस प्रतिस्पर्धा में किसी किस्म का दबाव शामिल हो जाता है, तो वह हर आदमी के लिए एक बोझ की तरह हो जाता है। आजकल अमीर से लेकर गरीब तक यही चाहते हैं कि उनका बच्चा अपने स्कूल में, कालेज में, यहां तक कि जीवन के हर क्षेत्र में पहले नंबर पर ही रहे। कोई भी अपने बच्चे को दूसरे, तीसरे, चौथे या सौवें नंबर पर नहीं देखना चाहता। इसके लिए बच्चे पर दबाव डाला जाता है।
यदि बच्चा प्रतिस्पर्धा में किसी कारणवश पिछड़ जाए, तो कुछ घरों में तो उसको प्रताड़ित किया जाता है। तमाम तरह की यातनाएं भी दी जाती हैं। प्रतिस्पर्धा एक अच्छी भावना है, यदि उसने दबाव न शामिल हो। प्रतिस्पर्धा से व्यक्ति को अपने जीवन का लक्ष्य निर्धारित करने में मदद मिलती है। वह आगे बढ़ने की प्रेरणा पाता है। उसमें नेतृत्व के गुण पैदा होते हैं, लेकिन यदि हम अपने बच्चों को, भाई-बहनों को या खुद को सहयोग के लिए प्रेरित करें, तो शायद जिंदगी और भी खूबसूरत हो जाएगी। क्लास में अव्वल आने वाला बच्चा यदि अपने कमजोर सहपाठी की थोड़ी मदद करे और उससे जो उसको खुशी मिलेगी, वह प्रतिस्पर्धा के कारण मिली जीत से कहीं ज्यादा मन को प्रसन्न करने वाली होगी। समाज में आज प्रतिस्पर्धा का दौर तो चरम पर है, लेकिन सहयोग की भावना का लोप होता जा रहा है।
सहयोग की भावना का यह विलोपन ही हमारे समाज में कई तरह की समस्याओं का जनक है। कई दशक पहले तक जब संयुक्त परिवार हुआ करते थे, उस परिवार में पलने वाले लोगों में प्रतिस्पर्धा के साथ-साथ एक सहयोग की भावना भी निरंतर पनपती चलती थी। संयुक्त परिवार में रहने वाले चचेरे और सगे भाई-बहनों में अगाध प्रेम हुआ करता था। खेल-कूद और पढ़ने लिखने से लेकर जीवन के कई मामलों में उनमें प्रतिस्पर्धा का भाव रहता था, लेकिन जैसे ही लगता था कि उनका प्रतिस्पर्धी संकट में है, वह प्रतिस्पर्धा नहीं कर पा रहा है, तो वह निस्संकोच अपने भाई-बहनों का सहयोग करने को तैयार हो जाता था। प्रतिस्पर्धा का भाव तिरोहित हो जाता था।
साथ रहने, खाने-पीने, खेलने-कूदने के दौरान उनमें पनपने वाला अपनत्व जीवन में प्रतिस्पर्धा को प्रगाढ़ नहीं होने देता था। समाज का संपूर्ण ढांचा प्रतिस्पर्धा पर नहीं, सहयोग पर टिका है, लेकिन जैसे-जैसे प्रतिस्पर्धा पर कई किस्म के दबाव बढ़ते जा रहे हैं, समाज में बिखराव देखने को मिल रहा है। समाज बिखर रहा है। यह किसी भी रूप में समाज के लिए शुभ नहीं है। प्रतिस्पर्धा जरूरी है, लेकिन दबाव नहीं।
-संजय मग्गू