समय और युग कैसा भी रहा हो, लोग परोपकार के कामों में रुचि लेते ही रहे हैं। प्राचीनकाल में जो लोग समर्थ होते थे, वह कुआं खुदवाते थे, सराय खुलवाते थे, पेड़-पौधे लगवाते थे, स्कूल खुलवाते थे। लेकिन कुछ लोग ऐसे भी होते थे, जो इतना सब कुछ करने के बाद भी अपना नाम गुप्त रखना चाहते थे। देश में कई ऐसे महापुरुष हुए हैं जिन्होंने गरीबों और असहायों की गुमनाम रहकर सेवा की। लेकिन कुछ लोग थोड़ा सा करने के बाद भी ढिंढोरा पीटते नहीं थकते हैं। आजादी के दौर से जुड़ा एक प्रेरक प्रसंग है। कराची में उन दिनों जमशेदजी मेहता रहते थे जो कराची के प्रसिद्ध समाजसेवी और कारोबारी थे। वे समाज की भलाई के लिए होने वाले कामों में हमेशा आगे रहते थे।
एक बार जनसेवा समिति के कुछ सदस्य उनके घर आए। उन दिनों वे एक अस्पताल का पुनरुद्धार के लिए लोगों से चंदा इकट्ठा कर रहे थे। चंदे से अस्पताल की मरम्मत के साथ-साथ लोगों को मुफ्त दवाइयां भी दी जानी थीं। लोगों ने अपनी योजना बताते हुए जमशेदजी से चंदे की गुजारिश की। साथ ही यह भी बताया कि समिति ने फैसला किया है कि जो भी व्यक्ति दस हजार रुपये की सहायता राशि देगा, उसका नाम सबसे पहले गेट के पास लिखवा दिया जाएगा।
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यह सुनकर जमशेदजी भीतर गए और थोड़ी देर बाद लौटकर आए तो उनके हाथों में नोट की गड्डी थी। उन्होंने यह रकम समिति वालों को दे दी। समिति के एक सदस्य ने रुपये गिने, विश्वास नहीं हुआ, तो दोबारा गिना। नौ हजार नौ सौ पचास रुपये थे। उस आदमी ने कहा कि मेहता जी, यह तो नौ हजार नौ सौ पचास रुपये हैं। मेहता जी ने हंसते हुए कहा कि कुछ काम गुप्त रहकर भी किए जाने चाहिए। मैं पचास रुपये और देकर अपना नाम शिलापट्ट पर नहीं लिखवाना चाहता हूं। यह सुनकर सब चकित रह गए।
-अशोक मिश्र
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