देश रोज़ाना: आगामी 30 नवंबर को दुबई में कॉप-28 की बैठक होने जा रही है। इस मौके पर दुनिया भर के पर्यावरणविद और राजनेता उपस्थित होंगे। भारत से पीएम नरेंद्र मोदी भी भाग लेने जा सकते हैं। उन्होंने जुलाई में ट्वीट करके इस बैठक में भाग लेने का वायदा किया है। कॉप-28 पर दुनिया भर की निगाहें टिकी हुई हैं क्योंकि इस बैठक में बात होनी है जलवायु परिवर्तन पर। इससे पहले भी 27 बार कॉप की बैठक हो चुकी है। कॉप यानी कांफ्रेंस आफ पार्टीज की इससे पहले हुई लगभग सभी बैठकें विफल हो चुकी हैं। इस बार भी कोई बहुत ज्यादा उम्मीद नजर नहीं आ रही है। चूंकि जलवायु परिवर्तन पूरी दुनिया को प्रभावित कर रहा है, इसलिए वैश्विक जिम्मेदारी को समझते हुए भारत ने हमेशा इन बैठकों में भाग लिया है और अपना पक्ष बड़ी दृढ़ता से रखा है।
कांफ्रेंस आॅफ पार्टीज की अब तक हुई बैठकों के विफल होने का कारण यह है कि दुनिया के जितने भी चौधरी देश हैं, वे अपनी कारगुजारियों को भारत सहित विकासशील और अविकसित देशों के कंधे पर सौंपकर निश्चित हो जाना चाहते हैं। जब से दुनिया में औद्योगिक क्रांति हुई है, तब से लेकर आज तक यानी 1750 से लेकर अब तक जितना भी कार्बन डाई आक्साइड उत्सर्जित हुआ है, उसमें पश्चिमी देशों की सबसे ज्यादा भूमिका रही है। माना जाता है कि वर्ष 1750 से लेकर 2023 तक पूरी दुनिया में 1.5 ट्रिलियन मीट्रिक टन कार्बन डाई आक्साइड उत्सर्जित हुआ है जिसमें से 90 फीसदी कार्बन उत्सर्जन यूरोप और अमेरिका ने किया है। पिछले तीन-साढ़े तीन सौ साल में उनके द्वारा वायुमंडल में छोड़ी गई गंदगी भारत, पाकिस्तान, चीन, साउथ अफ्रीका, घाना, चिली जैसे देश साफ करें और इसमें पश्चिमी देशों की भागीदारी नाममात्र को रहे।
इस मद में खर्च होने वाली राशि विकासशील और अविकसित देश वहन करें। यही नहीं, इंग्लैंड और यूरोपीय देशों ने अपना हित साधने के लिए भारत जैसे तमाम देशों में औद्योगिक विकास की प्रवाहमान धारा को ही बाधित करने का प्रयास किया। वर्ष 2009 में कॉप15 में फैसला लिया गया था कि गरीब देशों को रिन्यूएबल ग्रीन एनर्जी और कोयले से चलने वाले उद्योगों से दूरी बनाने के लिए सौ अरब डॉलर का सालाना फंड दिया जाएगा। लेकिन वह फंड आज तक रिलीज नहीं किया गया है। पिछले साल ही मिस्र में हुए कॉप27 में जलवायु परिवर्तन के विनाशकारी प्रभावों से जुड़े नुकसान की भरपाई के लिए एक राहत कोष बनाने पर सहमति बनी थी। लेकिन इस मामले में भी यूरोपीय देश और अमेरिका चाल चल गए और इसका जिम्मा बहुपक्षीय विकास बैंकों के मत्थे मढ़ दिया। नतीजा यह हुआ कि न कोई राहत कोष स्थापित हुआ और न ही कोई काम हुआ। इस बार 30 नवंबर से 12 दिसंबर के बीच होने वाली वार्ता कितनी सफल होगी, यह समय बताएगा। लेकिन पहले की तरह आशंका तो यही है कि एक बार फिर यह बैठक दुनिया भर के राष्ट्राध्यक्षों और पर्यावरणविदों की पिकनिक पार्टी बनकर तो नहीं रह जाएगी।
संजय मग्गू