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Editorial: कुपोषित बच्चों से कैसे बनेगा हमारा स्वस्थ समाज?

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देश रोज़ाना: लखींद्र सहनी दूसरे के खेतों में मजदूरी करते हैं। पत्नी के अलावा उनकी छह बेटियां और चार बेटे हैं। सबसे बड़ी बेटी की कम उम्र में ही शादी हो गयी और सबसे छोटी पांच साल से कम उम्र की है। सबसे बड़ा बेटा किशोरावस्था में ही दूसरे प्रदेश में कमाने चला गया, बाकी बेटियां बकरियां चराती हैं। इनमें से किसी का भी स्कूल-कॉलेजों से कभी नाता नहीं रहा है। निकट के आंगनबाड़ी केंद्र में भी कोई बच्चे पढ़ने नहीं जाते हैं। घर में एक आदमी कमाने वाला और 8-10 सदस्य खाने वाले हैं। ऐसे में भला इन बच्चों को भरपेट भोजन कैसे मिलता होगा? दूध-दही, फल-सब्जी की बात करना तो दूर की कौड़ी है। गांव में कभी कोई टीकाकरण करने वाली टीम आ गयी, तो पोलियो आदि की खुराक मिल गई, नहीं तो बीसीजी आदि टीके के बारे में भी इन बच्चों के माता-पिता को पता ही नहीं है।

कमोबेश यही हाल हुस्सेपुर जोड़ाकान्ही गांव के कई परिवारों की है। गरीबी, मुफलिसी, बेरोजगारी, अशिक्षा, कुपोषण जैसी गंभीर समस्याओं में जकड़ा यह गांव बिहार के मुजफ्फरपुर जिले के साहेबगंज प्रखंड में स्थित है। ये गांव तो एक बानगी है। कुछ इसी तरह के हालात मड़वन, मुशहरी, औराई, कटरा, बंदरा समेत जिला के अन्य प्रखंडों के मुसहर टोली, दलित टोला, मल्लाह टोली आदि में देखे जा सकते हैं। बिहार के अन्य जिले भी इन समस्याओं से अछूते नहीं हैं। कमोबेश, अधिकतर जिलों में ऐसे निर्धन परिवार मिल जाएंगे, जहां की आबादी काफी जद्दोजहद के साथ गुजर-बसर कर रही है। इनके पास दवा तक के पैसे नहीं होते हैं। जिनके पास प्रतिदिन सब्जी खरीदने के भी पैसे नहीं होते हैं, वे भला क्या स्वस्थ रहेंगे और पौष्टिक आहार लेंगे?

कहा जाता है कि स्वस्थ नागरिक के बिना स्वस्थ समाज की कल्पना बेमानी है। कोई भी मुल्क तभी प्रगति के पथ पर अग्रसर होता है, जब उस देश का आम आदमी स्वस्थ व सेहतमंद हो और इसके लिए पहली शर्त है कि उस देश के हर बच्चे को भर पेट भोजन के साथ-साथ जरूरी पोषक तत्व मिलता हो। लेकिन सच्चाई यह है कि हमारा देश आज भी कुपोषण की समस्या से उबर नहीं पाया है। आंगनबाड़ी केंद्र, पोषण पुनर्वास केंद्र, मिड-डे मील जैसी योजनाओं, कार्यक्रमों के बावजूद हमारा ग्रामीण भारत कुपोषण के कलंक को सालों से ढो रहा है।

कुपोषण के मामले में बिहार का प्रदर्शन कुछ राज्यों की तरह ही बहुत खराब है। कुछ साल पहले विख्यात समाजशास्त्री व सोशल एक्टिविस्ट ज्यां दे्रज ने कहा था कि बिहार में 40 फीसदी से अधिक लड़कियों की शादी कम उम्र में हो जाती है। टीकाकरण के मामले में राज्य में जरूर कुछ सुधार दिख रहा है, लेकिन अभी 12 फीसदी ऐसे बच्चे हैं, जिन्हें कोई टीका नहीं लगा है।

यूनिसेफ, बिहार के मुताबिक, 2011 की जनगणना के आंकड़ों के अनुसार बिहार में शून्य से 18 साल के बच्चों की कुल संख्या करीब 5.97 करोड़ है। इनमें मुजफ्फरपुर जिले में अनुमानत: 10.62 लाख बच्चे हैं, जिनमें करीब 4.5 लाख बच्चे कुपोषित बताए जाते हैं। नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे की रिपोर्ट के अनुसार, जिले में 42.7 फीसदी बच्चे कुपोषित हैं। यह स्थिति तब है, जब जिले के हर प्रखंड के लगभग सभी पंचायतों में करीब 3981 आंगनबाड़ी केंद्रों का संचालन हो रहा है। इसके अलावा सदर अस्पताल में 20 बेड का पोषण पुनर्वास केंद्र भी चल रहा है। लेकिन प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों एवं आंगनबाड़ी केंद्रों की उदासीनता के कारण एनआरसी में बच्चे नहीं आ पाते हैं।

कुपोषण के लक्ष्य को हासिल करने के उद्देश्य से जिले में राष्ट्रीय बाल स्वास्थ्य कार्यक्रम के तहत चार साल पहले मोबाइल टीम का गठन भी किया गया था, ताकि प्रखंड स्तर पर अति कुपोषित और कुपोषित बच्चों को चिह्नित किया जा सके। हर साल विभिन्न योजनाओं के मद में लाखों रुपये खर्च हो रहे हैं, लेकिन कुपोषण है कि जाने का नाम ही नहीं ले रहा है। तमाम सरकारी व गैर सरकारी प्रयासों के बावजूद 2015-16 की तुलना में 2020-21 में सिर्फ पांच प्रतिशत की ही कमी दर्ज की गयी है।

यूएनडीपी द्वारा प्रकाशित ह्यमानव विकास सूचकांक, 2021 में भारत का स्थान 132वां है, जो पड़ोसी मुल्कों से भी नीचे है। इसके साथ ही वैश्विक भुखमरी सूचकांक 2021 में भारत का स्थान 116 देशों में 101वां है, जो 2020 में 90वां था। (चरखा) (यह लेखिका के निजी विचार हैं।)- रिंकू कुमारी

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