लोग जानना चाह रहे हैं कि इन पांच राज्यों के चुनाव नतीजों का आगामी लोकसभा चुनावों पर क्या असर पड़ेगा? यह उत्सुकता स्वाभाविक है। 2014 के बाद से ही देश में यह माहौल बन गया है कि मोदी अजेय हैं। 2014 में ही कहा जाने लगा था कि अब 2019 नहीं, 2024 नहीं बल्कि 2029 में विपक्ष जीतने के बारे में सोचें। हालांकि मोदी के शासन के दो साल बाद ही 2016 में ही माहौल बदलने लगा।
बहुत सारे लोग मानते हैं कि पुलवामा की घटना न घटी होती और बालाकोट में सरकार कारवाई न करती तो 2019 के चुनाव नतीजे कुछ और आते। राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा, विपक्ष का एकजुट होकर ‘इंडिया’ बनाना और कर्नाटक के नतीजों से एक बार फिर यह माना जाने लगा था कि अब मोदी और भाजपा के दिन लद गए हैं। इस दौरान सरकार ने जो मुद्दे उठाए उनका भी गुब्बारा फूटा। सनातन और महिला आरक्षण बिल का मुद्दा बेअसर रहा। विपक्ष ने जाति आधारित गणना कराने की मांग उठाकर अपनी स्थिति और मजबूत कर ली।
अलबत्ता पांच राज्यों में से खासकर तीन हिंदी भाषी राज्यों में भाजपा की शानदार जीत ने भाजपा का मनोबल काफी बढ़ा दिया है। तेलंगाना और मिजोरम में तो भाजपा का ज्यादा कुछ स्टेक पर नहीं था, लेकिन इन तीन राज्यों में भी ज्यादातर सर्वे भाजपा की जीत को लेकर सशंकित ही थे। माना जा रहा था कि मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में तो भाजपा हार जाएगी। राजस्थान में उसकी जीत के जरूर ज्यादा आसार थे। पर भाजपा ने तीनों राज्यों को एकतरफा जीत लिया। इसका असर सोमवार से शुरू हुई संसद में भी देखा गया, जहां सांसदों ने मोदी-मोदी के नारे लगाए।
अगर 2024 के नजरिये से इन चुनावों के नतीजों को देखें तो पाएंगे कि भाजपा को कुछ भी लाभ नहीं होने वाला जबकि कांग्रेस या विपक्ष को थोड़ा ही सही पर लाभ जरूर होगा। इन चार राज्यों में लोकसभा की कुल 82 सीटें हैं। जिनमें से कांग्रेस के पास छह सीटें ही हैं। 65 सीटें भाजपा के पास हैं। तो बहुत होगा तो अगले आम चुनाव में भाजपा इन सीटों को बरकरार रख लेगी। हालांकि इसकी उम्मीद कम ही है। लेकिन जिस तथ्य को जानबूझकर मीडिया और सत्ताधारी दल उपेक्षा कर रहा है वह है तेलंगाना। तेलंगाना में कुल 17 सीटें हैं। इसमें कांग्रेस के पास अभी कुल तीन सीटें ही हैं। लेकिन अब वह यहां सत्ता में आ चुकी है। ज्यादा संभावना है कि वह अब यहां दर्जन भर सीट तो जीत ही लेगी।
तेलंगाना में जीत का कांग्रेस के लिए एक और भी महत्व है। वह यह कि अभी तक कांग्रेस जहां कहीं भी किसी क्षेत्रीय दल से हारी उसे कभी हरा नहीं पाई। वह भाजपा और वामपंथी पार्टियों से हारने के बाद तो उन्हें कई जगहों पर हराती रही है, लेकिन क्षेत्रीय दलों से एक बार हारने के बाद वह कभी जीत नहीं पाई। तेलंगाना में यह उसने कर दिखाया है। फिर आप ऐसा भी नहीं नहीं मान सकते कि हिंदी भाषी इन तीन राज्यों में जो विधानसभा का चुनाव जीतेगा, वहीं लोकसभा में भी जीतेगा।
इसका सबसे बड़ा उदाहरण खुद 2019 का लोकसभा चुनाव है। उससे पहले हुए चुनाव में भाजपा तीनों राज्यों में हार गई थी। इसके पहले 2004 के लोससभा चुनावों से पहले भाजपा इन तीनों राज्यों में चुनाव जीती थी जबकि आम चुनावों में हार गई। फिर इन तीन में से दो राज्यों में छत्तीसगढ़ और राजस्थान में दोनों के बीच वोटों का प्रतिशत महज चार फीसदी और दो फीसदी का ही है।
जो बहुत ही आसानी से बाकी विपक्षी पार्टियों को मिलाकर पाटा ही नहीं, बढ़ाया भी जा सकता है। मध्य प्रदेश में जरूर करीब आठ प्रतिशत वोटों का अंतर है तो अगर तेलंगाना में 18 प्रतिशत वोटों का अंतर पाटा जा सकता है तो ये आठ प्रतिशत क्यों नहीं? 2018 के विधानसभा चुनावों में केसीआर की तेलंगाना राष्ट्र समिति को 46.87 प्रतिशत वोट मिले थे जबकि कांग्रेस को 28.43 प्रतिशत।
(यह लेखक के निजी विचार हैं।)
-अमरेंद्र कुमार राय