भारतेंदु हरिश्चंद्र को आधुनिक हिंदी साहित्य का पितामह कहा जाता है। उन्होंने अपने समकालीन लेखकों, कवियों और नाटककारों को खड़ी बोली में लिखने को प्रेरित किया। उन्हीं की प्रेरणा और लेखन से हिंदी साहित्य का विकास हुआ। वह काशी के एक वैश्य परिवार में पैदा हुए थे। उनका परिवार काशी के संपन्न परिवारों में गिना जाता था। वह अपनी संपत्ति दीन-दुखियों, साहित्यकारों पर लुटाते रहे। उन्होंने जहां कहीं किसी को विपन्न देखा, उसकी सहायता करने पहुंच गए। धीरे-धीरे ऐसी स्थिति आ गई कि उनके पास संपत्ति के नाम पर कुछ नहीं बचा। इतने भी पैसे नहीं बचे कि वह अपने यहां आए हुए पत्रों का जवाब भेज सकें। उनके पास जितने पत्र आते, वह उनका जवाब लिखे और मेज पर रख देते।
उन पत्रों पर डाक टिकट लगाने भर के पैसे नहीं थे। नतीजा यह हुआ कि उनकी मेज पर लिफाफों का ढेर लग गया। एक दिन उनका एक मित्र उनसे मिलने आया और उसने मेज पर लिफाफों का ढेर देखा, तो वह भारतेंदु की हालत को समझ गया। उसने भारतेंदु को पांच रुपये देते हुए कहा कि इन पत्रों को डाकखाने भिजवा दीजिए। पांच रुपये पाकर भारतेंदु हरिश्चंद्र की आंखों में आंसू आ गए। उन्होंने लिफाफों पर टिकट लगाकर भिजवा दिया।
कुछ दिनों बाद भारतेंदु की आर्थिक हालत कुछ सुधरी तो उन्होंने अपने मित्र को पांच रुपये वापस कर दिए। वह मित्र जब भी मिलता, उसकी जेब में वह पांच रुपये डाल देते। एक दिन उनके मित्र ने कहा कि लगता है, मुझे आपसे मिलना छोड़ना पड़ेगा। इस पर भारतेंदु ने आंखों में आंसू भरकर कहा कि आपने मेरी उस समय मदद की थी, जब मुझे मदद की सबसे ज्यादा जरूरत थी। अब यदि मैं आपको पांच रुपये रोज दूं, तब भी उस ऋण से मुक्त नहीं हो पाऊंगा।
-अशोक मिश्र
लेटेस्ट खबरों के लिए क्लिक करें : https://deshrojana.com