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बाजार की प्रतिस्पर्धा में छोटे व्यापारी से अन्याय

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भारत में ई-कॉमर्स और सुपर मार्केट के बढ़ते कारोबार के बीच खुदरा बाजार लगातार सिमटता जा रहा है। अकेले किराना क्षेत्र में ही लगभग 1.25 करोड़ दुकानदारों सहित कपड़ा, जूता आदि उत्पाद मिलाकर देश में लगभग चार करोड़ छोटे व्यापारी हैं जिनसे 40 करोड़ लोगों का पोषण होता है। आधारभूत संरचना, उत्पादन और सेवा क्षेत्र की बदौलत गतिमान अर्थव्यवस्था की चकाचौंध में खुदरा कारोबारियों का घटता व्यापार देश की आर्थिकी पर अभी चाहे सीधा प्रभाव न डाल रहा हो परंतु भविष्य में सकल व्यापार पर इसके प्रभाव निश्चित परिलक्षित होंगे।

छोटे व्यापारियों के टूटने का अर्थ होगा कि देश में ऐसे बेरोजगारों की एक भारी खेप तैयार हो जाएगी, जो कुछ वर्षों पूर्व तक न सिर्फ व्यापारी थे, बल्कि वह स्वयं करीब डेढ़ करोड़ लोगों को रोजगार भी देते थे। सामान्य तौर पर छोटे व्यापारियों की विफलता का मुख्य कारण उनके पास वृहद व सुसज्जित प्रतिष्ठान का अभाव और उपभोक्ता के लिए आकर्षक आॅफर की अनुपलब्धता है। जबकि क्रेडिट कार्ड से उपभोक्ता के पास उधार खरीद का विकल्प भी एक कारण बना है।

सुपर मार्केट और ई-कॉमर्स से प्रतियोगिता में छोटे कारोबारियों के पिछड़ने का मुख्य कारण व्यवसाय के वह अन्यायपूर्ण प्रावधान हैं, जो प्रत्यक्ष रूप से दिखाई नहीं पड़ते हैं। यदि किराना व्यापार को उदाहरणस्वरूप देखें तो एक खुदरा व्यापारी अपने थोक व्यापारी से जिस कीमत पर उत्पाद प्राप्त कर रहा है, उतनी ही कीमत पर या उससे भी कम कीमत पर ई-कॉमर्स और सुपर मार्केट सीधा उपभोक्ता को वह उत्पाद बेच रहे हैं। सुपर मार्केट और ई-कॉमर्स सभी उत्पाद सस्ते बेचते हों, ऐसा भी नहीं है।

वह उपभोक्ता के ध्यान में रहने वाले कुछ चयनित उत्पादों को अत्यधिक सस्ता करके उसका व्यापक विज्ञापन करते हैं। प्रचार साधनों के लिए इस स्तर का व्यय वहन कर पाना छोटे व्यापारी के लिए असंभव है। हालांकि छोटे किराना व्यापारियों के लिए असली चुनौती उत्पादक कंपनियों द्वारा किया जा रहा भेदभाव है। असंगठित और विकेन्द्रित छोटे दुकानदार इस अन्याय को झेलने के लिए मजबूर हैं। उनके ऊपर बैठे थोक व्यापारी इसके विरुद्ध खड़े होने के लिए थोड़ा भी गंभीर नहीं दिख रहे क्योंकि शहरों के थोक व्यापारी और कम्पनियों के वितरक उसी शहर के सुपर मार्केट की अपेक्षा चार से दस गुना उत्पाद बेचने के बावजूद कंपनी द्वारा सुपर मार्केट को दी जाने वाली कीमतों से कहीं महंगी दरों पर वितरण के लिए माल क्रय करते हैं।

उन्हें कंपनी से यह पूछने का हक है कि सुपर मार्केट से कई गुना अधिक माल खरीदने के बाद भी बतौर क्रेता उन्हें बड़े स्टोर्स जैसी कीमतें क्यों नहीं दी जाती हैं? वितरकों की अपने इस हक के प्रति शिथिलता के कारण ही छोटे दुकानदार मूल्यों की प्रतियोगिता में सुपर स्टोर्स से लगातार पिछड़ रहे हैं। ई-कॉमर्स के माध्यम से आॅनलाइन पोर्टलों पर हो रही बिक्री की भी यही स्थिति है।

व्यवहार संगत तथ्य यह है कि छोटा या बड़ा कोई भी दुकानदार लाभ के लिए ही माल बेचता है। तो स्पष्ट है कि ई-कामर्स पोर्टल और सुपर मार्केट जिस कीमत पर माल बेच रहे हैं, डिस्प्ले, विज्ञापन और स्कीम आदि के बहाने उन्हें उससे सस्ती कीमतों पर वह उत्पाद प्राप्त हो रहा है। छोटे दुकानदारों के हित में मल्टी ब्रांड एफडीआई पर रोक लगाने मात्र से सरकार अपने दायित्वों की इतिश्री नहीं कर सकती।

इस तथ्य को समझना अत्यंत आवश्यक है कि मल्टी ब्रांड और ई-कॉमर्स की देशी कंपनियां भी पब्लिक सेक्टर होने के कारण शेयर धारकों द्वारा निवेशित धन से व्यापार करती हैं। वह सालोंसाल सैकड़ों करोड़ का घाटा उठाकर भी कारोबार कर सकती हैं, जबकि पांच-दस लाख से कम सकल पूंजी का छोटा व्यापारी दो-चार महीने की हानि वहन नहीं कर सकता।
(यह लेखक के निजी विचार हैं।)

-अनिल धर्मदेश

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