प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने केंद्रीय कर्मचारियों के लिए नई पेंशन स्कीम यूपीएस के नाम से शुरू करने की घोषणा की है। यूनिफाइड पेंशन योजना को लेकर फिलहाल सत्तापक्ष और विपक्ष आमने सामने हैं। सवाल यह है कि इस देश में सरकारी नौकरियों में पेंशन पाने वाले कितने लोग होंगे? एक करोड़, दो करोड़, पांच करोड़, बहुत अधिक हुआ तो दस करोड़। 140 करोड़ आबादी वाले देश में सिर्फ दस करोड़ लोगों को सामाजिक सुरक्षा हासिल है, बाकी 130 करोड़ लोगों का क्या? इन्हें सामाजिक सुरक्षा प्रदान करने का जिम्मा किसके पास है? काम करने की उम्र बीत जाने के बाद उनके खाने-पीने, कपड़े-लत्ते और दवा-दारू का खर्च कौन देगा? सबसे ज्यादा चिंताजनक स्थिति तो असंगठित क्षेत्र में काम करने वालों की है। दैनिक मजदूरी करने वाला क्या किसी पेंशन स्कीम का हिस्सा बन सकता है? जब वह बूढ़ा हो जाएगा, हाथ-पैर जवाब देने लगेंगे, कई तरह की बीमारियां शरीर में घर करने लगेंगी, तब वह कहां जाएगा? तब उसकी देखभाल कौन करेगा? अपनी बीमारी का इलाज कराने के लिए किसके पास जाएगा?
यह सवाल देश के करोड़ों असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले लोगों के सामने है। निजी क्षेत्र में काम करने वाले ज्यादातर कर्मचारियों को वेतन भी इतना ज्यादा नहीं मिलता है, वे उसमें से कुछ बचाकर भविष्य के लिए सुरक्षित रख सकें। जो भी वेतन मिलता है, महीने का अंत आते-आते खर्च हो जाता है। फिर शुरू होता है, इधर-उधर उधार लेने का सिलसिला। जिस देश में हर पांच दिन में एक अरबपति पैदा हो रहे हों, उसी देश में पांच लाख रुपये सालाना कमाने वालों की तनख्वाह में सिर्फ 2.36 प्रतिशत ही बढ़े, तो देश में आर्थिक विषमता की स्थिति क्या होगी, इसका अंदाजा लगाना कोई मुश्किल काम नहीं है। जिन लोगों की आय लाख-सवा लाख रुपये सालाना है, उनकी दशा तो और भी दयनीय है। उनका दैनिक खर्च ही चल जाए, यही बहुत है। वे भविष्य के लिए बचाकर रखने की बात तो सोच भी नहीं सकते हैं।
इनकी हालत तो ‘रोज कुआं खोदो, रोज पानी पियो’ जैसी होती है। और इनकी संख्या कम नहीं है। सत्तर-अस्सी करोड़ से भी ऊपर है। प्रधानमंत्री जिन 80 करोड़ लोगों को हर महीने पांच किलो राशन देते हैं, यही वे लोग हैं जिनके बुढ़ापे का कोई प्रबंध नहीं है। निजी क्षेत्र की कंपनियों में पहली बात पेंशन जैसी कोई योजना संचालित नहीं होती है। यदि देश की सौ-पचास कंपनियां ऐसी सुविधा अपने कर्मचारियों को प्रदान भी करती हैं, तो ऐसी सुविधा पाने वाले लोगों को रिटायरमेंट के बाद दो-चार या पांच-छह हजार रुपये मासिक पेंशन से ज्यादा नहीं मिलती है।
अब इतनी कम रकम का वह करे भी तो क्या? ऊपर से अब नया काम करने या खोजने की कूबत भी नहीं रही। और किसान? यानी देश के सबसे बड़े असंगठित क्षेत्र के लगभग 35-40 करोड़ कामगार, उसको साल में छह हजार रुपये देकर क्या उसका भविष्य को सुरक्षित किया जा सकता है, जबकि जिंदगी भर वह जो फसलें उगाता रहा, उसके उसे कभी पूरे दाम तक नहीं मिले। उसे कभी फायदा ही नहीं हुआ।
-संजय मग्गू