जो लोग सज्जन होते हैं, वे अपने पराए का भेद नहीं करते हैं। वैसे भी हमारे पूर्वजों ने कहा है कि अपना पराया का भेदभाव नहीं करना चाहिए। किसी प्रदेश में एक राजा थे दुर्गादत्त। वह प्रजा वत्सल थे। उन्होंने अपनी प्रजा की भलाई के लिए हर संभव कार्य किए। राज्य की प्रजा बहुत सुखी थी। राजा को बस एक ही दुख था कि उनके कोई संतान नहीं थी। उन्होंने अपने ही राज्य के नहीं, बल्कि पड़ोसी राज्यों के चिकित्सकों से अपना और अपनी महारानी का उपचार कराया, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। एक दिन लोगों की सलाह पर उन्होंने शिवानंद नाम के बच्चे को गोद ले लिया। संयोग देखिए कि एक साल बाद महारानी ने भी एक पुत्र को जन्म दिया।
उसका नाम रखा गया चंद्रदत्त। रानी अपने बेटे को बहुत प्यार करती थी, लेकिन राजा दुर्गादत्त के मन में अपने दोनों बेटों के लिए कोई भेदभाव नहीं था। वह दोनों बेटों को समान रूप से प्यार करते थे। समय बीतता गया, दोनों राजकुमार बड़े होते गए। एक दिन वह भी आया जब राजा को अपना उत्तराधिकारी चुनना था। महारानी ने अपने बेटे चंद्रदत्त को राजा बनाने के लिए दबाव डाला। लेकिन राजा किसी के साथ अन्याय नहीं करना चाहते थे।
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इसलिए उन्होंने दोनों की परीक्षा लेने का फैसला किया। दोनों राजकुमारों ने शस्त्र संचालन, घुड़सवारी जैसी तमाम प्रतियोगिताओं में समान प्रदर्शन किया। अंत में राजा ने दो बीमार लोगों को एक-एक को सौंपते हुए बीमार के साथ रहने और उपचार कराने को कहा। चंद्रदत्त ने वैद्य को बुलाकर उसकी चिकित्सा करने को कहा और महल में चला गया। शिवानंद ने वैद्य को बुलाया और बीमार मरीज की तब तक सेवा की, जब तक वह ठीक नहीं हो गया। इस पर प्रजा ने शिवानंद को अपना राजा चुन लिया।
-अशोक मिश्र
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