भारतीय सिनेमा के सौ साल से ज्यादा के इतिहास में एक से बढ़कर एक गीतकार हुए हैं, लेकिन उनमें शैलेंद्र की बात ही कुछ और है। शैलेंद्र कवि हृदय थे। नौजवानी से ही कविता के जानिब उनकी बेहद दिलचस्पी थी। यह दिलचस्पी बढ़ी तो कविताएं लिखने लगे। तकदीर ने उन्हें फिल्मी गीतकार बना दिया। हुआ कुछ यों कि मुंबई में इप्टा ने एक कवि सम्मेलन आयोजित किया था। उसमें शैलेंद्र अपना गीत ‘जलता है पंजाब साथियो…’ पढ़ रहे थे।
श्रोताओं में मशहूर निर्माता-निर्देशक राज कपूर भी शामिल थे। कवि सम्मेलन के बाद राज कपूर, शैलेंद्र से मिले और उन्हें अपनी फिल्म में गाने लिखने की पेशकश की। लेकिन शैलेंद्र ने इस पेशकश को यह कहकर ठुकरा दिया कि ‘मैं पैसे के लिए नहीं लिखता।’एक वक़्त ऐसा भी आया, जब शैलेंद्र को आर्थिक मजबूरियों और पारिवारिक जरूरतों के चलते पैसे की बेहद जरूरत आन पड़ी और वे खुद राज कपूर के पास पहुंच गए। राज कपूर उस समय ‘बरसात’ बना रहे थे।
फिल्म के छह गीत हसरत जयपुरी लिख चुके थे, दो गानों की और जरूरत थी। जिन्हें शैलेंद्र ने लिखा। एक तो फिल्म का टाइटल गीत ‘बरसात में हम से मिले तुम’ और दूसरा ‘पतली कमर है, तिरछी नजर है।’ साल 1949 में आई फिल्म ‘बरसात’ के गीतों ने उन्हें रातों-रात देश भर में मकबूल बना दिया। राज कपूर और शैलेंद्र की जोड़ी ने आगे चलकर फिल्मी दुनिया में एक नया इतिहास रचा। उनकी जोड़ी ने एक साथ कई सुपर हिट फिल्में दीं।
शैलेंद्र का दिल गरीबों के दु:ख-दर्द और उनकी परेशानियों में बसता था। उनकी रोजी-रोटी के सवाल वे अक्सर अपने फिल्मी गीतों में उठाते थे। फिल्म उजाला में उनका एक गीत है, ‘सूरज जरा आ पास आ, आज सपनों की रोटी पकाएंगें हम।’ वहीं फिल्म मुसाफिर में वे फिर अपने गीत में रोटियों की बात करते हुए कहते हैं, ‘क्यों न रोटियों का पेड़ हम लगा लें।’ दरअसल, शैलेंद्र ने अपनी जिÞंदगी में भूख और गरीबी को करीब से देखा था। वे जानते थे कि आदमी के लिए उसके पेट का सवाल कितना बड़ा है।
फिल्मों में शैलेंद्र ने आठ सौ से ज्यादा गीत लिखे, लेकिन इन गीतों में भी भाषा और विचारों की एक उत्कृष्टता है। अपने गीतों से उन्होंने हमेशा अवाम की सोच को परिष्कृत किया। वे जनता की नब्ज को पहचानने वाले गीतकार थे। अपने गीतों की लोकप्रियता के बारे में उनका कहना था कि इन सोलह बरसों के हर दिन ने मेरे गीतकार को कुछ न कुछ सिखाया है, एक बात तो दृढ़ता से मेरे मन में विश्वास बनकर बैठ गई है कि जनता को मूर्ख या सस्ती रुचि का समझने वाले कलाकार या तो जनता को नहीं समझते या अच्छा और खूबसूरत पैदा करने की क्षमता उनमें नहीं है।
हां, वह अच्छा मेरी नजरों में बेकार है जिसे केवल गिने-चुने लोग ही समझ सकते हैं। इसी विश्वास से रचे हुए मेरे कई गीत बेहद लोकप्रिय हुए। फिल्मों में गीत लिखने की शैलेंद्र की रचना प्रक्रिया भी अजब थी। लिखने के लिए वे सुबह-सवेरे कोई चार-पांच बजे के बीच उठकर समंदर के किनारे बैठ जाते थे। चूंकि वे कागज लेकर नहीं निकलते थे। लिहाजा सिगरेट की डिब्बी या उसकी पन्नी ही उनका कागज होता। उनके कई शानदार गीत ऐसे लिखे गए थे।
उन्होंने अपने फिल्मी जीवन में कुल मिलाकर अट्ठाईस अलग-अलग संगीतकारों के साथ काम किया। उसमें सबसे ज्यादा नब्बे फिल्में शंकर-जयकिशन के साथ कीं। ‘बरसात’ से लेकर ‘मेरा नाम जोकर’ (1970) तक राज कपूर द्वारा बनाई गई सभी फिल्मों के टाइटल गीत उन्हीं ने लिखे, जो खूब लोकप्रिय हुए।
साहित्यकार फणीश्वरनाथ रेणु की चर्चित कहानी ‘तीसरी कसम उर्फ मारे गए गुलफाम’ पर शैलेंद्र ने एक फिल्म ‘तीसरी कसम’ भी बनाई। ख़्वाजा अहमद अब्बास ने इसे सेल्यूलाइड पर लिखी कविता कहा। यह बात अलग है कि व्यावसायिक तौर पर यह फिल्म नाकाम रही। जिसका सदमा शैलेंद्र नहीं झेल पाए। 14 दिसम्बर, 1966 को महज तैतालिस साल की उम्र में उन्होंने इस दुनिया से अपनी विदाई ले ली। अपने जिगरी—दोस्त शैलेंद्र की असमय मौत से राज कपूर को बड़ा झटका लगा।
(यह लेखक के निजी विचार हैं।)
-जाहिद खान