शाहजहांपुर के एक मुस्लिम परिवार में 22 अक्टूबर 1900 को अशफाक उल्ला खान वारसी का जन्म हुआ था। वह बचपन से ही क्रांतिकारियों की तरह देश की आजादी के लिए लड़ना चाहते थे। उनमें आजादी की ललक देखकर उनकी मां मजरुनिस्सा काफी खुश होती थीं। वह सत्रह-अठारह साल की उम्र में ही क्रांतिकारियों के संपर्क में आ गए थे। उनकी मां उनसे अकसर कहा करती थीं कि तुम अभी बहुत छोटे हो। मुझे डर है कि यदि तुम इसी तरह क्रांतिकारी गतिविधियों में भाग लेते रहे, तो हो सकता है कि एक दिन तुम पकड़े जाओ। ऐसी स्थिति में यह भी हो सकता है कि तुम अपने साथियों के नाम और पते अंग्रेजों को बता दो। वैसे तो मैं भी चाहती हूं कि तुम अपने देश को आजाद कराने में भरपूर योगदान दो।
अशफाक ने अपनी मां को यह विश्वास दिलाया कि यदि कभी ऐसा अवसर आया भी तो मैं अंग्रेजों को कभी अपने साथियों के बारे में नहीं बताऊंगा। उनकी मां ने कहा कि मैं तुम्हारी परीक्षा लेना चाहती हूं। इतना कहकर वह एक जलता हुआ दीपक लेकर आईं और उस दीपक की लौ पर हथेली रखकर अपने साथियों से दगा न करने का संकल्प लेने को कहा। अशफाक ने जलती लौ पर अपनी हथेली रख दी। जब उनकी हथेली जलने लगी, तो भी उनके मुंह से उफ तक नहीं निकला, तो उनकी मां ने उन्हें गले लगाते हुए कह कि मुझे विश्वास हो गया कि तू क्रांतिकारियों से दगा नहीं करेगा।
इसके कुछ साल बाद क्रांतिकारियों ने अपनी जरूरत के लिए काकोरी में अंग्रेजी खजाना लूट लिया। इस मामले में सबसे पहले राम प्रसाद बिस्मिल गिरफ्तार किए गए। अपने एक सहपाठी के धोखेबाजी से अशफाक दिल्ली से गिरफ्तार किए गए। बाद में मुकदमा चलाकर राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खां वारसी हजरत, ठाकुर रोशन सिंह और राजेंद्र लाहिड़ी को 17 दिसंबर 1927 को फांसी दे दी गई।
-अशोक मिश्र