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सुशासन की दरकार और रेवड़ी कल्चर

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सुशासन की चर्चा और दरकार सभ्यता जितनी पुरानी है। अलबत्ता इसकी व्यापकता अभी नूतन प्रयास के साथ रोज नए खोज से गुजरती है। लोकतंत्र में जनता की भलाई सुशासन में निहित पक्ष है, साथ ही लोक कल्याण को प्रतिदिन बांटते रहना सरकारों का धर्म है। इसी बांटने वाली पद्धति ने कुछ ऐसे अभिलक्षण का विकास कर लिया है

जिससे मुफ्त की रेवड़ी संस्कृति अर्थात मुफ्त का चलन सुशासन के साथ चहल कदमी करने लगी और यह चुनावी दौर में कहीं अधिक गतिशील व प्रगतिशील दिखाई देती है। इन दिनों देश पांच राज्यों की चुनावी प्रक्रिया में है और इस संस्कृति का पूरा प्रभाव एक बार फिर इस चुनावी सफर में साथ-साथ है।

वस्तुस्थिति को देखते हुए उच्चतम न्यायालय ने भी इस पर चिंता जाहिर किया है। पांच राज्यों के इस चुनावी गहमागहमी के बीच सुप्रीम कोर्ट ने मध्य प्रदेश, राजस्थान, केंद्र सरकार, चुनाव आयोग और रिजर्व बैंक को अक्टूबर में नोटिस भेजा। मुफ्त की चुनावी सौगातों से जुड़ी एक जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए अदालत ने जानना चाहा कि क्या ऐसे चुनावी वादों को नियंत्रित किया जा सकता है? अदालत ने चार हफ्ते में जवाब मांगा था, यहीं से एक पुरानी बहस नए सिरे से चल पड़ी है कि क्या यह मुफ्त की रेवड़ी है या लोक कल्याण?


गौरतलब है कि रेवड़ी कल्चर को फ्रीबीज के रूप में भी जाना जाता है। फिलहाल इसे लेकर केंद्रीय निर्वाचन आयोग ने उच्चतम न्यायालय से कहा था कि उसने चुनाव के दौरान किए जाने वाले मुफ्त सुविधाओं के वादे के मुद्दे पर विचार-मंथन के लिए एक विशेषज्ञ समिति बनाने के सुझाव का स्वागत किया है। मुफ्त में बांटी गई योजनाओं के चलते सरकारें कितने आर्थिक दबाव से जूझती हैं यह तो सरकार बनने के कुछ महीने बाद ही पता चल जाता है।

जब प्रदेश में नौकरियों के लिए विज्ञप्ति का अभाव और लचर विकास व्यवस्था समेत कई आर्थिक कठिनाइयों से जनता दो-चार होने लगती है। पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह का लाल किले से कहा गया वह कथन कि पैसे पेड़ पर नहीं उगते, यहां कहीं अधिक प्रसांगिक है कि कर दाताओं की गाढ़ी कमाई ऐसे ही बेजा राजनीतिक हित में उपयोग करना आर्थिक दशा को दुर्दशा में बदल सकता है और कमाई के मामले में राज्य भले ही आगे हो जाए मगर सभी की भलाई करने के मामले में बौने रह सकते हैं।

आरबीआई की एक रिपार्ट से यह पता चलता है कि सब्सिडी के बढ़ते बोझ की वजह से कई राज्यों की आर्थिक हालत खराब है। रिपोर्ट में कहा गया है कि कई राज्य टैक्स से हुई अपनी आमदनी को 35 फीसदी तक हिस्सा मुफ्त की योजनाओं में खर्च कर देते हैं। पड़ताल बताती है कि ऐसे राज्यों में पंजाब 35.4 फीसदी, आंध्र प्रदेश 30.3 फीसदी और मध्य प्रदेश 28.8 फीसदी के साथ सूची में ऊपर है।

जबकि झारखंड और पश्चिम बंगाल में यही आंकड़ा क्रमश: लगभग 27 व 24 फीसदी है। खास यह है कि राजस्थान में फिर से सत्ता चाहने वाली गहलोत सरकार पहले भी कई योजनाओं के सहारे अपनी नैया पार लगा ली थी और अब रसोई गैस का सलेंडर 400 रुपये में देने का वादा एक नई पहल है। हालांकि राजस्थान में यह आंकड़ा 8.6 फीसदी ही है। इस आधार पर देखा जाए तो राजस्थान रेवड़ी संस्कृति के मामले में काफी दूर खड़ा दिखता है।

सुशासन, सब्सिडी और मुफ्त की योजना का गहरा नाता है। पर यदि इसमें संतुलन का अभाव हुआ तो सबसे अधिक नुकसान जनता का ही होगा। सरकारें आती और जाती रहती हैं। जनता का हित सर्वोपरि है। शिक्षा, चिकित्सा समेत बहुत सारी बुनियादी विकास पर सरकारें कार्यरत देखी जा सकती है। अलबत्ता चुनौतियां घटी हैं, पर समाप्त नहीं हुई है। राजनीतिक दल सत्ता हथियाने की होड़ में मुफ्त की व्यवस्था लाकर उन्हें भी सुविधापरक बना देते हैं, जो कमाई के मामले में बेहतर है और स्वयं पर खर्च कर जीवन को चलायमान रख सकते हैं।
(यह लेखक के निजी विचार हैं।)

-डॉ. सुशील कुमार सिंह

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