देशभर के स्कूलों में अब छठवीं से आठवीं तक दस दिन बच्चे बस्ता रहित रहेंगे। बस्ता रहित रहेंगे तो करेंगे क्या? यह सवाल वाजिब है। इन दस दिनों में वे गांवों में जाएंगे, मिट्टी के बर्तन बनाएंगे, बिजली का काम सीखेंगे, मेले में जाकर मस्ती करेंगे। वे पढ़ेंगे, लिखेंगे, खेलेंगे, कूदेंगे। हां, उन दिनों स्कूली पाठ्यक्रम नहीं पढ़ेंगे। केंद्र सरकार का यह फैसला वैसे तो अच्छा है, लेकिन 365 दिनों में सिर्फ दस दिन। इतने कम समय में वे क्या इतना सीख जाएंगे कि वह अपनी रुचि के अनुसार भविष्य में अपनी आजीविका चुन सकें। गांवों में अब मिट्टी के बर्तन बनाना, बढ़ईगीरी, लुहारी जैसे काम लगभग न के बराबर हो गए हैं, शायद सरकार को पता नहीं है या फिर जानबूझकर ऐसा किया गया है। जैसे हम प्रगति के सोपान पर चढ़ते गए, हमने उन सारी चीजों से पीछा छुड़ा लिया है जो कभी गांवों की अर्थव्यवस्था के आधार हुआ करते थे। जैसे मेले-ठेले। अब ग्रामीण क्षेत्रों में मेला लगना या तो बंद हो गया है या फिर गिने-चुने मेले लगते हैं।
गांवों और शहरों में सदियों से लगते आए मेले न केवल भारतीय संस्कृति को बचाए रखते थे, बल्कि वे संदेश के आदान-प्रदान, काष्ठ और लौह शिल्प के कारीगरों के लिए बाजार का काम करते थे। यह मेले लोगों के आपसी मेल मिलाप का साधन हुआ करते थे। इन्हीं मेलों में मां अपनी विवाहिता बेटी, बहन, नाते रिश्तेदारों से महीने दो महीने में मुलाकात कर लेती थी। किसी एक गांव से गई महिला या पुरुष पूरे गांव के लोगों के लिए उनके रिश्तेदारों के संदेश लेकर आते थे। गांव में रहने वाली महिला या पुरुष अपने गांव के प्रत्येक घर के नाते-रिश्तेदारों को जानते-पहचानते थे। मेले-ठेले में मिलने पर वे हालचाल पूछते थे, राजी-खुशी के समाचार लेते थे और गांव में आकर संबंधित लोगों से बता देते थे।
अब अतीत का हिस्सा हो गए मेले। इनको आज छठवीं-आठवीं के बच्चे कहां खोजेंगे? जब से प्लास्टिक, बोन चाइना या शीशे के बर्तनों का चलन बढ़ा है, गांवों में कुम्हारों ने चाक चलाना बंद कर दिया है या बहुत कम मिट्टी के बर्तन बनाए जाते हैं। सिर्फ तीज-त्यौहारों के लिए। शहरों में लगने वाली बड़ी-बड़ी फैक्ट्रियों ने गांव के लुहारों और बढ़इयों के मुंह से निवाला छीन लिया है। अब हंसिया, खुरपी जैसी चीजों की जरूरत भी कहां रह गई है, जब खेती का सारा काम मशीनों ने अपने जिम्मे ले लिया है।
खेत जोतने से लेकर बीज बोने और तैयार फसल को काटने जैसे काम मशीनें करने लगीं, तो हंसिया, खुरपी जैसे पारंपरिक कृषि यंत्रों की जरूरत ही कहां रह गई। कुछ सीखने की गरज से दस दिनों तक गांवों की धूल फांकने वाले स्कूली बच्चों को प्राचीन भारत की झलक तो नहीं मिलने वाली है। वे जो कुछ शहरों में पाते हैं, उससे मिलता-जुलता माहौल ही उन्हें अब गांवों में भी मिलेगा। हां, यह सही है कि साल में दोबार पांच-पांच दिनों के लिए वे उस बस्ते के बोझ से मुक्त रहेंगे जिसके अवसर उन्हें शायद कम ही मिलते हैं।
-संजय मग्गू
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