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ईरान में सुधारवादियों से भी जनता को उम्मीद नहीं

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छह जुलाई को जब ईरान में हुए चुनाव परिणाम आए और मसूद पजशकियान के राष्ट्रपति पद के लिए चुने जाने की खबरें आई थीं, तो जहां दुनिया भर के अखबार और विश्लेषक ईरान में वामपंथी उभार को लेकर खूब हो-हल्ला मचा रहे थे, तो मैंने नौ जुलाई को इसी कालम में ब्रिटेन, फ्रांस और ईरान में वामपंथी पार्टियों के जीतने पर लिखा था कि इन देशों की व्यवस्थाएं संकटग्रस्त हैं और ये पूंजीवादी अर्थव्यवस्था को बचाए रखने के लिए कभी उदारवाद का परचम लहराती हैं, तो कभी नव उदारवाद का। अब ईरान के मामले में यह खुलकर सामने आ गया है कि ईरान में आम जनता ने राष्ट्रपति चुनाव का सामूहिक बहिष्कार कर रखा था, तमाम पोलिंग बूथ खाली पड़े रहे, ऐसी स्थिति में अगर सरकारी आंकड़ा 49.8 प्रतिशत मतदान का दिखाता है, तो यह संदेहजनक है। वास्तविक आंकड़ा कोई जान भी नहीं सकता है, ईरानी व्यवस्था में। जिस मसूद पजशकियान को पूर दुनिया में सुधारवादी कहकर पेश किया गया, दरअसल वे राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार तभी बन पाए जब उन्होंने ईरान के सर्वोच्च धार्मिक नेता अली खामनेई के प्रति अपनी वफादारी जाहिर की।

वह राष्ट्रपति के उम्मीदवारों की एक गार्जियन काउंसिल जांच करती है, उसके बाद ही कोई भी व्यक्ति राष्ट्रपति पद के लिए चुनाव में खड़ा हो सकता है। सच तो यह है कि ईरान में काफी दिनों से यह खेल चल रहा है कि ईरानी जनता को बरगलाने के लिए वहां की व्यवस्था कभी कट्टरपंथियों को चुनाव में जिता देती है, तो कभी सुधारवादियों को। पिछले 45 साल का इतिहास देखें, तो 24 साल तक कथित सुधारवादियों ने भी ईरान पर शासन किया है, लेकिन मौलिक रूप से कोई परिवर्तन नहीं आया। आ भी नहीं सकता है क्योंकि पूंजी का संबंध वैश्विक है, एक देशीय नहीं। वैश्विक पूंजीवाद के चलते कोई भी देश वैश्विक व्यवस्था के खिलाफ नहीं जा सकती है। हां, उसका मुखौटा कट्टर धार्मिक हो सकता है, लोकतांत्रिक हो सकता है, राष्ट्रवादी हो सकता है, उदारवादी हो सकता है।

इन सभी तरह के मुखौटों के पीछे जो लोग हैं, व्यवस्था के संचालक-परिचालक विशुद्ध रूप से पूंजीपतियों के ही इशारे पर काम करते हैं। पूंजी का न कोई देश होता है, न कोई जाति होती है, न कोई धर्म होता है। पिछले 24 साल तक सुधारवादियों का रवैया देखने के बाद ईरानी जनता इस बात को अच्छी तरह समझ गई है कि मसूद के शासन काल में भी न हिजाब से छूट मिलने वाली है, न महिलाओं के साथ होने वाला अत्याचार रुकने वाला है। ईरानी जनता को शासन से कोई उम्मीद भी नहीं है क्योंकि उसने मतदान तो किया नहीं है। ईरानी शासन पिछले पांच दशक से दो चेहरे रखता आया है ताकि लोगों को यह भरोसा दिलाया जा सके कि बदलाव की गुंजाइश खत्म नहीं हुई है। लोग शासन व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन लाने के लिए राष्ट्रीय क्रांति जैसी बातों के चक्कर में न पड़ें। अब देखना यह है कि ईरानी शासन व्यवस्था कब तक अपने देश की जनता को इस तरह बरगलाए रहती है। वैसे यह चिंता तो वैश्विक है।

-संजय मग्गू

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