समर्थ गुरु रामदास छत्रपति शिवाजी के गुरु थे। उनका जन्म 1608 में महाराष्ट्र के औरंगाबाद जिले में हुआ था। इनके बचपन का नाम नारायण था। यह एक दार्शनिक, संत, लेखक और आध्यात्मिक गुरु थे। कहते हैं कि इन्होंने बारह साल की उम्र में श्रीराम की कठिन तपस्या की थी, इसीलिए इनका नाम रामदास पड़ गया। स्वामी रामदास ने मराठी में दासबोध नाम का ग्रंथ भी लिखा था। स्वामी रामदास ने बारह साल तक पूरे भारत का भ्रमण किया और भिन्न-भिन्न मत और संप्रदायों के गुरुओं से मुलाकात की। समर्थ गुरु रामदास हमेशा भिक्षा मांगकर ही खाया करते थे।
एक बार की बात है। वह भिक्षा छत्रपति शिवाजी के महल में भिक्षा मांगने पहुंच गए। बाहर से ही उन्होंने आवाज लगाई। छत्रपति अपने गुरु की आवाज सुनते ही पहचान गए। वह नंगे पांव बाहर की ओर दौड़े। उन्होंने रामदास से कहा कि आप भिक्षा मांगकर हमें लज्जित न करें। आप हमारे गुरु हैं। तब समर्थ रामदास ने कहा कि मैं एक भिक्षुक के नाते भिक्षा मांगने आया हूं। तब छत्रपति शिवाजी ने एक कागज पर कुछ लिखकर उनके कमंडल में डाल दिया। समर्थ गुरु रामदास ने उसे निकालकर पढ़ा और उसे फाड़कर फेंकते हुए कहा कि मुझसे गलती हुई जो यहां भिक्षा मांगने चला आया। शिवाजी ने गुरु जी से माफी मांगते हुए कहा कि मुझे क्या भूल हुई?
समर्थ गुरु ने कहा कि जो चीज तुम्हारी नहीं है, वह तुम किसी को दान कैसे दे सकते हो? राज्य जनता का होता है। तुम उसके सामर्थ्यवान सेवक हो। राज्य पर तुम्हारा इतना ही हक है। और जहां तक मेरी बात है। मेरा दो मुट्ठी अनाज से ही काम चल जाता है। मुझे राज्य लेकर क्या करना है। यह सुनकर छत्रपति शिवाजी ने अपने गुरु को प्रणाम किया और बोले, अब ऐसी भूल नहीं होगी।
-अशोक मिश्र