एक अध्ययन बताता है कि आजकल के 40 प्रतिशत स्कूली बच्चों में निराशा घर कर गई है। लगभग साठ प्रतिशत कालेज के विद्यार्थी हताशा के दौर से गुजर रहे हैं। क्यों? असल में उनके मां-बाप ने धन कमाया, अपने बच्चों के हाथों पर रख दिया। बच्चों ने अपनी मर्जी से उसे खर्च भी किया। पैसे कैसे खर्च करने हैं, यह तो उनकी समझ में आया, लेकिन समय कैसे खर्च करना है, इसका पाठ न मां-बाप ने सिखाया और न ही स्कूल-कालेज वालों ने। नतीजा यह हुआ कि बच्चे अपना समय उस पर खर्च करते रहे जिसकी या तो जरूरत नहीं थी या फिर कब और कहां खर्च करना है, इसकी समझ नहीं थी। जब बच्चों को अपना समय पढ़ाई पर खर्च करना था, तब वे फिजूल के कामों में लगे रहे। नतीजा यह हुआ कि सर्टिफिकेट या डिग्री तो मिली, लेकिन ज्ञान नहीं। पढ़ाई पर समय खर्च करते तो आत्म विश्वास बढ़ता, भविष्य सुधरता। लेकिन ऐसा नहीं हुआ।
अपने परिवार पर समय खर्च नहीं किया, नतीजा यह हुआ कि अपने मां-बाप, भाई-बहन, दादा-दादी के प्रति प्रगाढ़ लगाव और प्यार नहीं पनप सका। इससे भीतर ही भीतर एक तरह का असंतोष पनपता रहा। आज समाज में रिश्तों से जुड़े अपराध का कारण यही परिवार पर समय खर्च न करना है। समय प्रबंधन की कला के न पनपने से जीवन के लक्ष्य तय नहीं हो पाए। लक्ष्यहीन बचपन, लक्ष्यहीन जवानी ने मन में अराजकता को पैदा किया। इस अराजकता ने ही समाज में हत्या, बलात्कार और छेड़छाड़ की एक ऐसी शृंखला की शुरुआत की जिसका अंत नजर नहीं आता है। जो समय खेल पर खर्च करना चाहिए था, उस समय वीडियो गेम्स, मोबाइल पर रील्स बनाने या देखने में बीत गया। अगर घर के बाहर निकलकर गली-मोहल्ले के बच्चों के साथ खेलते-कूदते, तो शरीर स्वस्थ रहता ही, आत्मविश्वास पैदा होता।
समाज में कैसे रहना है, कैसे समाज का नेतृत्व करना है, कैसे समझौता करके खेल को आगे बढ़ाना है, यह सब सीखते। खेल के दौरान किए गए नेतृत्व, समझौतों और हारने-जीतने का भावी जीवन में सकारात्मक भूमिका होती है। खेलने-कूदने से मिलने वाले आनंद से वंचित मन और बचपन कुंठाग्रस्त होकर दो-तीन साल की बच्ची से लेकर साठ साल की बुजुर्ग महिला को दबोच लेने में ही आनंद की खोज करने लगा। समाज के लिए एक नासूर बन गया।
जो समय लोगों और समाज की सेवा पर खर्च करना चाहिए था, उसको यों ही खर्च कर दिया। समाज के लोगों से जुड़कर, उनकी थोड़ी सी सहायता करने में कितना सुकून मिलता है, कितना आंतरिक सुख मिलता है, इसको जान ही नहीं पाए। किसी बुजुर्ग की सहायता करने में जो सुख मिलता है, उनका काम करने से मन में आत्म विश्वास पैदा होता है, उसको महसूस तक नहीं कर पाए। समाज के लोगों से कैसे जुड़ना है, समाज का कैसे भला करना है, इसकी कला ही नहीं सीख पाए क्योंकि समाज पर थोड़ा सा भी समय तो खर्च किया ही नहीं। बस, मां-बाप, भाई-बहन आदि की कमाई को कैसे खर्च करना है, यही सीखा। पैसा या पूंजी प्रमुख हो गई, समय गौण हो गया। समय ने भी इसका बदला लिया और भरपूर लिया। समाज, देश और परिवार के लिए नकारा बनाकर।
-संजय मग्गू