एक राजा था। वह बहुत ही न्यायप्रिय था। वह अपनी प्रजा का बहुत ख्याल रखता था। उसने अपनी प्रजा के लिए धर्मशालाएं, गौशालाएं और सड़कें बनवाई थीं ताकि लोगों को यात्रा के दौरान किसी किस्म की परेशानी न हो। बाढ़, सूखा जैसी प्राकृतिक आपदा के मौके पर राजा अपनी ओर से लोगों को हरसंभव मदद करता था।
प्रजा भी उसके राज्य में काफी सुखी और समृद्ध थी। व्यापारी राजा को उचित कर दिया करते थे। उसी राज्य में एक व्यापारी रहता था। वह बहुत ही लालची था। वह अपने यहां काम करने वाले लोगों के साथ भी बेईमानी करने से बाज नहीं आता था। एक बार की बात है। वह कहीं जा रहा था। रास्ते में उसका बटुआ गिर गया। जब उसे पता चला, तो उसने बहुत खोजा लेकिन वह नहीं मिला। वह बटुआ एक भिखारी को मिल गया था।
भिखारी बहुत ईमानदार था। उसने सोचा कि इस बटुए को राजा के यहां जमा कर दे ताकि जिसका बटुआ है, उसे मिल जाए। रास्ते में वही व्यापारी मिला। व्यापारी ने भिखारी से बटुए के बारे में पूछा, तो उसने व्यापारी को सारी बात बता दी। व्यापारी ने बटुआ लेने के बाद उसमें रखी मोहरें गिनीं। पूरे सौ थीं। व्यापारी ने खुश होकर भिखारी को बीस मोहरें उपहार स्वरूप दे दीं।
थोड़ी दूर जाने के बाद व्यापारी को लालच आ गया और उसने कहा कि इसमें दो सौ मोहरें थी। चोरी का आरोप भिखारी सह नहीं पाया। उसने राजा के दरबार में शिकायत की। राजा ने व्यापारी से पूछा कि कितनी मोहरें इस बटुए में थीं? व्यापारी ने दो सौ मोहरों की बात कही। राजा जान गया कि भिखारी सच्चा है। इसलिए राजा ने कहा कि इन सौ मोहरों में से आधी भिखारी को पुरस्कार में दे दी जाए। बाकी राजकोष में जमा करवा दिया जाए। यह बटुआ व्यापारी का नहीं है। जब व्यापारी का बटुआ मिलेगा, तब उसे वापस कर दिया जाएगा। व्यापारी को अपनी लालच का फल मिल गया।
-अशोक मिश्र