ज्ञानी होने का अहंकार जब किसी व्यक्ति में जागता है, तो वह अपने आपको विशिष्ट श्रेणी का मानकर व्यवहार करने लगता है। वह यह समझता है कि वह जो कुछ जानता है, समझता है, वही अंतिम सत्य है। लेकिन वह यह भूल जाता है कि किसी भी कला या ज्ञान में पारंगत होने के लिए कितनी मेहनत करनी पड़ती है। किसी गुरुकुल में पढ़ने वाले एक शिष्य को यह अहंकार हो गया कि वह सब कुछ जान गया है। उसके ज्ञान का कोई मुकाबला नहीं है। वही सबसे श्रेष्ठ है। यह बात उस गुरुकुल के आचार्य भी जान गए। उन्होंने उससे कुछ नहीं कहा, लेकिन एक दिन वह उसे लेकर घूमने निकले। घूमते-घूमते वह दोनों एक गांव में पहुंचे जहा एक किसान अपने खेत में कड़ी धूप में जुताई कर रहा था।
दोनों गुरु-शिष्य उस धूप में काफी देर तक खड़े रहे, लेकिन किसान ने उनकी ओर ध्यान ही नहीं दिया। जब थोड़ी धूप ढली तो दोनों गुरु-शिष्य शहर पहुंचे, जहां उन्होंने देखा कि एक लुहार भीषण गर्मी में लोहा गरम करके उसे नया आकार दे रहा था। दोनों लोग काफी देर तक यहां भी खड़े रहे, लेकिन लुहार ने उनकी ओर बिल्कुल ध्यान नहीं दिया। यहां से निराश होकर दोनों लोग एक सराय में पहुंचे। दोनों लोग काफी थक गए थे।
तभी वहां तीन मुसाफिर आए जो काफी थके हुए लग रहे थे। तब गुरु ने अपने शिष्य को समझाते हुए कहा कि किसान जब कड़ी धूप में अपना पसीना बहाता है, तब वह लोगों का पेट भरने के लिए अन्न उपजा पाता है। लुहार भट्ठी के आगे तपता है, तब जाकर वह धातु को एक नया आकार दे पाता है। यह जो तीन मुसाफिर आए हैं, वह मीलों पैदल चलने के बाद ही अपनी मंजिल तक पहुंचे हैं। बिना मेहनत किए कुछ भी हासिल नहीं होता है। इसके लिए अहंकार कैसा? यह सुनकर शिष्य लज्जित होकर रह गया।
-अशोक मिश्र