पिछले कुछ वर्षों से मिट्टी मेंं प्रदूषण बढ़ता जा रहा है। प्रदूषित मिट्टी में पैदा होने वाली फसलों के उपयोग से इंसानों के स्वास्थ्य पर भी बहुत गहरा असर हो रहा है। मिट्टी में पाई जाने वाली भारी धातुओं की मात्रा काफी हद तक इंसानों को कई तरह की बीमारियां सौगात में दे रही हैं। हरित क्रांति के नाम पर हमारे देश में जिस तरह अंधाधुंध रासायनिक खादों और कीटनाशकों का उपयोग किया गया है, उसके दुष्परिणाम अब सामने आने लगे हैं। कीटनाशकों के उपयोग ने खेतों में पाए जाने वाले हानिकारक कीटों को तो नष्ट किया ही, उन्होंने खेती और इंसानों के लिए सहयोगी माने जाने वाले कीटों को भी नुकसान पहुंचाया। कीटनाशकों के तत्व विभिन्न तरह से मिट्टी में मिलकर उसे प्रदूषित करने लगे। यही नहीं, इसका दुष्प्रभाव यह पड़ा कि हमारे खेती योग्य जमीनें बंजर होने लगीं। जिन खेतों में दो किलो रासायनिक खाद डालने पर अच्छी खासी पैदावार होती थी, उन खेतों में अब जब तक इसकी दो गुनी-तीन गुनी खाद न डाली जाए, तब तक कुछ पैदा ही नहीं होता है।
यह भी एक किस्म का बंजरपन है। कीटनाशकों और रासायनिक खादों के उपयोग से पहले गांवों और शहरों में पाए जाने वाले पक्षी और कीट-पतंग अब नहीं दिखाई देते हैं। रासायनिक खादों और कीटनाशकों ने पक्षियों और कीट-पतंगों को बुरी तरह प्रभावित किया है। यही वजह है कि कृषि वैज्ञानिक और सरकारें प्राकृतिक खेती पर जोर देने लगी हैं। यह प्राकृतिक खेती हमारी प्राचीन कृषि पद्धति ही है। आज से चार-पांच दशक पहले किसान खेत की जुताई के बाद गोबर की खाद अपने खेत में डालता था। घर और आसपास से इकट्ठा की गई खरपतवार भी खेत में डाल देता था। फसल काटने के बाद बची हुई जड़ें और डंठल भी खेत में ही छोड़ देता था। जब फसल बोने का समय आता था, तो जुताई करके उसमें पानी भर दिया जाता था। तब यह सब अवशिष्ट खाद में बदल जाते थे।
इसके बाद किसान फसल बोता था। इस तरीके से उगाया गया अन्न किसी भी तरह से मानव शरीर के लिए नुकसानदायक नहीं होता था। गांवों की जैव विविधता भी बरकरार रहती थी। कीट-पतंगों से लेकर विभिन्न प्रकार के पक्षी हमारी जैव विविधता में सहायक होते थे। अनाज को नुकसान पहुंचाने वाले कीट-पतंगों को चिड़िया शिकार कर लेती थीं। फसल को नुकसान पहुंचाने वाले पौधों को काटकर किसान अपने पशुओं को खिला देता था या नष्ट कर देता था। लेकिन आज हमारी खेती की पूरी पद्धति ही बदल गई है। आधुनिक तकनीक और रासायनिक खादों ने जहां जमीनों की उत्पादकता और किसानों को सहूलियत प्रदान की है, वहीं उसने उसके सामने कई तरह की समस्याएं भी पैदा की हैं। ग्लोबल वार्मिंग और कृषि से संबंधित समस्याओं से निपटना है, तो इसका सबसे आसान तरीका प्राकृतिक खेती है। हमें अपनी पुरानी खेती की ओर लौटना ही होगा। इसके अलावा कोई विकल्प भी नहीं बचता है।
-संजय मग्गू