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क्या ब्रिक्स अमेरिका विरोधी प्लेटफार्म बनकर रह जाएगा?

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संजय मग्गू

दक्षिण अफ्रीका में ब्रिक्स समिट तो खत्म हो गया, लेकिन वह अपने पीछे कुछ सवाल छोड़ गया है। ब्रिक्स समिट के दौरान एक बात तो साफ तौर पर उभरकर सामने आई और वह यह कि अमेरिका का नव उदारवाद अब दुनिया के लिए किसी काम का नहीं रह गया है। इस बात को साबित करने का प्रयास जहां चीन ने किया, वहीं रूसी राष्ट्रपति ब्लादिमीर पुतिन के वीडियो कांफ्रेंसिग से दिए गए वक्तव्य का भी लब्बोलुआव यही था। उन्होंने पश्चिमी देशों पर निशाना साधते हुए कहा कि पश्चिमी देशों का ‘नव उदारवाद’ विकासशील देशों के पारंपरिक मूल्यों के लिए खतरा पैदा कर रहा है। इसके साथ ही वो उस बहुध्रुवीय विश्व व्यवस्था के लिए भी चुनौती है, जिसमें किसी देश और ब्लॉक को वर्चस्व का शिकार नहीं होना पड़ता है। इस साल जनवरी से ब्रिक्स देशों की संख्या 11 हो जाएगी। जब ब्रिक्स की स्थापना हुई थी, तो इसमें चार ही देश थे भारत, ब्राजील, चीन और रूस। बाद में दक्षिण अफ्रीका को इसमें शामिल किया गया।

अब ब्रिक्स में सऊदी अरब, ईरान, मिस्र, इथोपिया, अर्जेंटीना और संयुक्त अरब अमीरात को शामिल करने का फैसला साउथ अफ्रीका समिट में लिया गया है। दरअसल, ब्रिक्स को पश्चिमी देश खासतौर पर अमेरिका विरोधी माना जाता है, लेकिन यदि हम इस पर गंभीरता से विचार करें, तो ऐसा दिखता नहीं है। यह सही है कि भारत और रूस के बीच पारंपरिक मित्रता है और रूस औ चीन के बीच भी गाढ़े संबंध हैं, लेकिन भारत और चीन एक दूसरे के हितों को प्रभावित करते हैं। इतना ही नहीं, भारत और ब्राजील के अमेरिका से काफी अच्छे संबंध हैं। भारत ने तो रूस और अमेरिका के संबंधों को इस तरह निभाया है कि दोनों देशों के हित  भारत के मामले में टकराते नहीं हैं। संयुक्त अरब अमीरात, अर्जेंटीन और इथोपिया के भी अमेरिका से संबंध सामान्य हैं। न अमेरिका विरोधी हैं, न अमेरिका समर्थक।

एकाध देश भले ही अमेरिका विरोधी हो सकते हैं। ऐसे में सवाल यह उठता है कि ब्रिक्स के विस्तार की जरूरत क्यों पड़ी। भारत का रवैया इस मामले में काफी सकारात्मक है, लेकिन चीन चाहता है कि ब्रिक्स के बहाने और सहारे वह अमेरिका विरोधी मुहिम का नेतृत्व करे। वह विकासशील देशों को ब्रिक्स में शामिल करके अपना प्रभुत्व स्थापित करना चाहता है। वैसे भी उसने विकासशील देशों में पूंजी निवेश करके उन्हें अपने पक्ष में कर लिया है। वह एशिया और यूरोप तक कारीडोर बनाकर वैश्विक बाजार पर कब्जा करना चाहता है। उसने पाकिस्तान, बांग्लादेश, म्यांमार, श्रीलंका और नेपाल जैसे एशियाई देशों में तो भारी भरकम निवेश कर ही रखा है। अब वह अफ्रीकी देशों की ओर रुख कर रहा है।

इस मामले में तो भारत का रुख बहुत साफ है। सबका साथ और सबका विकास वाली नीति उसने जी-20 सम्मेलन में अब तक रखा है, वहीं ब्रिक्स सम्मेलन में भी इसी नीति के अनुसार उसका रवैया रहा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा भी है कि बहुध्रुवीय व्यवस्था के लिए ब्रिक्स का मजबूत होना बहुत जरूरी है। इससे ब्रिक्स देशों के आपसी संबंध मजबूत होंगे और वे एक दूसरे के नजदीक आएंगे। इससे उनके बीच व्यापारिक संबंध बनेंगे, तो वे एक दूसरे के विकास में सहयोगी बनेंगे।

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