पहली बार 1974 में जब भारत के संसद में महिलाओं की स्थिति के आकलन संबंधी समिति की रिपोर्ट में महिलाओं के प्रतिनिधित्व का मुद्दा उठा। राजनीतिक इकाइयों में उनकी कम संख्या का हवाला देते हुए पंचायतों और स्थानीय निकायों में महिलाओं के लिए सीटें आरक्षित करने की सिफारिश की गई। उस समय किसी ने सोचा नहीं था कि संबंधित समिति के सुझाव को फलीभूत होने में दशक दर दशक बीत जायेंगे।
इस नीतिगत दूरदर्शिता को 2023 में जाकर अमलीजामा पहनाया जाएगा। इन सिफारिशों के कुछ समय बाद 1993 में संविधान में 73वें और 74वें संशोधन के तहत पंचायतों और नगरपालिकाओं में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत सीटें आरक्षित तो कर दी गईं, पर संसद में उनकी सीटें पक्की करने का मामला तब भी अटका रहा। किसी ने भी महिलाओं को बराबरी की पंक्ति में बिठाने की कोई जद्दोजहद नहीं की।
पहली बार हुआ कि जब 1996 में 81वें संविधान संशोधन विधेयक के रूप में इसे पहली बार संसद में पेश किया गया। तब से आज तक इसे विरोध के कई स्तरों से गुजरना पड़ा। इसे राजनीतिक साहस ही कहेंगे कि 2010 में तमाम राजनीतिक अवरोधों को दरकिनार कर राज्यसभा में इस विधेयक पारित करा लिया गया, पर लोकसभा में बात फिर भी नहीं बन सकी। इतने सालों के बाद एक बड़े राजनीतिक निर्णय ने इसे इस लटके मामले को गहरे अंधेरे बादलों की ओट से निकालकर चमकते रूप में दुनिया के सामने रखा है। निश्चित ही यह वंदनीय है।
धुंधलका छंटा है और नई रोशनी से हम लकदक हैं। सदन में महिलाओं की बढ़ी मौजूदगी से एक सकारात्मक और संवेदनशील संदेश जाएगा कि हम न केवल नारी को पूजते हैं बल्कि उसे समता और सम्मान की थाली में सजाते भी हैं। हिलेरी क्लिंटन अकसर कहती थीं कि जब तक महिलाओं की आवाज नहीं सुनी जाएगी, तब तक सच्चा लोकतंत्र परिकल्पित नहीं हो सकता। भारत की महिलाओं ने लंबे समय तक इसकी बाट जोही है।
उनकी पीड़ा तब और दोहरी हो जाती थी, जब रवांडा, बोलिविया और क्यूबा जैसे छोटे देश पचास प्रतिशत से ज्यादा महिला सांसदों के साथ अपनी मजबूत स्थिति बनाए हुए थे, लेकिन हमारी संसद में केवल 11.8 प्रतिशत के प्रतिनिधित्व से ही उन्हें संतोष करना पड़ता था। बहरहाल, देर आए दुरुस्त आए। अब मौसम का मिजाज जो बदला है तो महिलाएं भी अपनी सजगता, बुद्धिमत्ता और तर्कशीलता के साथ पूरी तरह लामबंद हो जाएं।
उनके अधिकारों और संविधान प्रदत्त अवसरों का उनके हित में इस्तेमाल हो, इसके लिए उन्हें सतर्क, सजग और सक्रिय बनना होगा। अभी मीलों सफर और तय करना है। मंजिल तो अभी दूर है, ये तो बस छोटे छोटे ठिकाने हैं। इस सफर में अति उत्साह पानी न फेर दे, इसका उन्हें विशेष ध्यान रखना होगा। अब चूंकि लैंगिक असमानता की खाइयों को पाटकर वे एक कदम और आगे बढ़ चुकी हैं तो बहुत संभव है कि आरक्षित निर्वाचन क्षेत्रों में उनके पति या अन्य पुरुष संबंधियों के प्रभाव के आधार पर नहीं बल्कि उनके अपने व्यक्तिगत कार्यों और संपर्कों के बूते उन्हें चुनावी टिकट दिया जाअ।
इसके लिए उन्हें अपना प्रभावशीलता बढ़ानी होगी। पुरुषों की छाया से निकल कर जनसंपर्क और सतत कार्यशीलता के जरिए अपना विशाल चमकता व्यक्तित्व गढ़ना होगा। दूसरी ओर सभी दलों को अब आगे बढ़कर इसमें अपनी भूमिका निभानी होगी। दल महिला उम्मीदवारों को उसी अनुपात में चुनाव उतारे, जिससे उनका बेहतर प्रतिनिधित्व बेहतर हो सके। इस कयास से इतर कि इस विधेयक से केवल शहरी महिलाओं का समुचित प्रतिनिधित्व सुनिश्चित होगा, समवेत शक्ति और साहस के साथ सभी वर्ग की महिलाएं उठें और अपने फैसले अपने हक में लें।
(यह लेखिका के निजी विचार हैं।)
-डॉ. दर्शनी प्रिय