अशोक मिश्र
दक्षिण भारत के वैष्णव संतों में संत रामानुज को बहुत सम्मान हासिल है। इन्होंने वैष्णव धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए पूरे भारत की यात्रा की थी। इनके दर्शन का आधार वेदांत था। इसके अलावा वह सातवीं से लेकर दसवीं सदी के रहस्यवादी एवं भक्तिमार्गी अलावार संतों के भक्ति दर्शन से बहुत प्रभावित थे। इनका जन्म वर्तमान तमिलनाडु के श्रीपेरुमबुदूर गांव में भट्ट ब्राह्मण परिवार में हुआ था। इनके पिता केशव भट्ट प्रकांड विद्वान थे। इन्होंने कांची जाकर अपने गुरु यादव प्रकाश से वेदों की शिक्षा हासिल की थी। बाद में इन्होंने आलवार संत यमुनाचार्य से शिक्षा हासिल की और इनके गुरु ने ब्रह्मसूत्र, विष्णु सहस्रनाम और दिव्य प्रबन्धम की टीका लिखने का संकल्प कराया था। बात तब की है, जब वह कांची से पढ़ाई करके लौट रहे थे, तो मार्ग में उन्हें एक साधु मिला। बालक रामानुज ने उस साधु से घर चलने की जिद की। बालक के हठ को देखते हुए साधु ने घर चलने की बात मान ली। अपने बेटे को किसी साधु के साथ आते देखकर केशव भट्ट बहुत प्रसन्न हुए। नजदीक आने पर उन्होंने देखा कि यह तो कांचिपूर्ण हैं जो एक पहुंचे हुए प्रसिद्ध साधु और परम भक्त हैं। यह तो कोई साधारण साधु नहीं हैं। वह तो विष्णु कांचि के जाग्रत विग्रह श्री वरदराज के परमभक्त हैं। यह जनाने के बाद बालक रामानुज साधु की सेवा में लग गया। खाने-पीने के बाद जब साधु लेटे तो वह उनके पैर दबाने लगे। साधु ने कहा कि आप मेरा पैर कैसे दबा सकते हैं। आप ब्राह्मण हैं और मैं शूद्र। तब रामानुज ने कहा कि सिर्फ जनेऊ पहनने से कोई ब्राह्मण नहीं हो जाता है। विख्यात भक्त तिरुप्पान आलोचार क्या चांडाल होकर भी ब्राह्मणों में पूज्य नहीं हैं? यह सुनकर कांचिपूर्ण समझ गए कि यह बालक आगे चलकर महान संत बनेगा।
बोधिवृक्ष : जनेऊ पहनने से कोई ब्राह्मण नहीं हो जाता
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