भारत के राजस्थान प्रांत के कोटा शहर में 1943 में जन्मी श्रीलंका मूल की पद्मश्री इंदिरा दसनायक को उनकी मां मातृभाषा सिंहली बोलना सिखाती तो थीं पर भारत में जन्म होने के कारण पढ़ाई हिंदी में हो रही थी।
तब वह भीम गंज मंडी पाठशाला में आठवीं कक्षा में थीं, जब दादी के अचानक देहांत के बाद व्यवसायी पिता को परिवार लेकर श्रीलंका लौटना पड़ा। उन्हें सिंहली बोलना समझना तो आता था लेकिन लिखना-पढ़ना नहीं। श्रीलंका में उनके सामने मातृभाषा में शिक्षा पढ़ाई जारी रखने की चुनौती आ गई। श्रीलंका के स्कूल में प्रवेश उन्हीं बच्चों को मिलता था, जिन्हें सिंहली भाषा आती थी।
उन्होंने कम उम्र की इस बड़ी मुश्किल को अपने हौसले से कैसे दूर किया? उन्हीं की जुबानी-
सबसे पहले घर में इधर-उधर पड़े पत्र-पत्रिकाओं को इकट्ठा किया। उनके शीर्षकों और रचनाओं को पढ़ना-रटना शुरू किया। रट-रट के नकल करके लिखने को अपनी आदत बनाया। इस आदत ने ही हमें सिंहली अक्षरों से पूरी तरह से परिचित कराया। सिंहली सीखने से उन्हें स्कूल में दाखिला मिल गया लेकिन आठवीं कक्षा तक हिंदी में पढ़ने वाली इंदिरा दसनायक हिंदी छोड़ना नहीं चाहती थीं।
अपने देश में उन्हें हिंदी पढ़ने की दूसरी चुनौती से जूझना पड़ा। हिंदी की पढ़ाई जारी रखने की मुश्किल को दूर कराने में स्कूल की अध्यापिका हेमा गुणतिलक मददगार के रूप में सामने आईं। उन्होंने स्कूल के प्रधानाचार्य को समझाने की बहुत कोशिश की। वह तैयार नहीं हुए लेकिन उन्होंने हार भी नहीं मानी।
तभी उन्हें मिल्टन कुमानायक नाम के एक ऐसे सज्जन मिले जो हिंदी बहुत अच्छी जानते थे। हेमा गुणनायक ने उनसे हिंदी प्रश्नपत्र बनवाकर दिया। इंदिरा के अच्छी तरह उत्तर देने के बाद हेमा ने प्रधानाचार्य से स्कूल में हिंदी पढ़ने का अवसर दिलाने में कामयाबी प्राप्त की। इस तरह इंदिरा दसनायक की अपने देश में भी हिंदी से जुड़े रहने की इच्छा पूरी हुई।
श्रीलंका के विश्व विद्यालयों में उस समय हिंदी को एक विषय के रूप में पढ़ाने की कोई व्यवस्था नहीं थी। हिंदी के प्रति प्रेम इंदिरा दसनायक को फिर भारत खींच लाया। 1965 में लखनऊ विश्वविद्यालय से बीए और फिर एमए करने के बाद 1969 में विद्यालंकार विश्वविद्यालय (अब केलानिया विश्वविद्यालय) में हिंदी विभाग की प्राध्यापिका के रूप में उन्होंने पद ग्रहण किया। 1976 में श्रीलंका के इसी विश्वविद्यालय से पीएचडी की उपाधि प्राप्त की।
इस तरह हिंदी में शोध और हिंदी की प्रोफेसर बनने वाली वह पहली श्रीलंकाई बन गईं। इंदिरा दसनायक के प्रयासों से ही श्रीलंका में हिंदी का प्रचार-प्रसार बढ़ा और केलानिया विश्वविद्यालय का हिंदी विभाग पुनर्स्थापित हुआ।
उन्होंने वर्ष 1982 में केलनिया विश्वविद्यालय में 4 वर्षीय बीए आॅनर्स पाठ्यक्रम प्रारंभ कराया। चौथे वर्ष के विद्यार्थी को अपना शोध हस्तलिपि में ही पूर्ण करने का नियम उन्हीं की देन है।
हिंदी शिक्षकों के अभाव के चलते उन्हें सप्ताह में तीस-तीस घंटे तक पढ़ाने पड़े। हिंदी प्रेम के चलते ही रिटायर होने के बाद भी उन्होंने विश्वविद्यालय में हिंदी पढ़ाना जारी रखा। उनसे शिक्षा प्राप्त सैकड़ों विद्यार्थी शिक्षक बनकर श्रीलंका के स्कूलों में हिंदी के प्रचार-प्रसार में रत हैं।
उनकी शिष्या रह चुकी और वर्तमान में केलानिया विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में सेवारत अनुषा निल्मणी सल्वतुर बताती हैं कि उनके द्वारा शुरू किए गए प्रयासों के चलते ही आज श्रीलंका के नौ विश्वविद्यालयों- श्री जयवर्धनपुर, सबरगमुव, बौद्ध और पालि, रहुण, मारटुव, रजरट, सौंदर्य, कातलावल डिफेंस एकेडमी और आयुर्वेद विश्वविद्यालय समेत 80 से अधिक संस्थानों और स्कूलों में आधुनिक मानक और परिनिष्ठित हिंदी पढ़ाई जा रही है।
27 सितंबर 2019 में श्रीलंका मूल की अप्रतिम हिंदी योद्धा का कोलंबो में दुखद देहावसान हो गया। हिंदी सेवा के लिए भारत सरकार ने वर्ष 2020 में मरणोपरांत पद्मश्री सम्मान से सम्मानित किया। उनका यह पद्म सम्मान ग्रहण करने के लिए आस्ट्रेलिया में रह रहीं उनकी पुत्री वत्सला भारत आईं थीं।
(यह लेखक के निजी विचार हैं।)