स्कूल और कालेज में पढ़ने वाले बच्चों में हताशा, अवसाद और क्रोध की भावनाएं घर करती जा रही हैं। राष्ट्रीय स्तर पर अगर देखें, तो शायद ही कोई प्रदेश होगा जिसमें किसी छात्र ने कोई अपराध न किया हो। हालात यहां तक पहुंच गए हैं कि छोटी-छोटी बातों पर पढ़ने वाले बच्चे उग्र होकर हत्या जैसी घटनाओं को अंजाम दे रहे हैं। मनोविश्लेषक मानते हैं कि पिछले कुछ दशकों से स्कूली बच्चों पर काफी दबाव बढ़ रहा है। उन पर दिनोंदिन बढ़ता दबाव उन्हें उग्र बना रहा है। पचास-साठ प्रतिशत मां-बाप तो अपने बच्चों पर मानसिक दबाव बनाए रखते हैं कि उन्हें नब्बे फीसदी से ज्यादा अंक लाने हैं। अव्वल नंबर आने का दबाव बच्चों के स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव डालता है।
यही नहीं, मां-बाप सुबह उठाकर बच्चों को या तो पढ़ने के लिए बिठा देते हैं या फिर उन्हें स्कूल जाने की तैयारियों में जुटा देते हैं। स्कूल में भी अध्यापक अलग से दबाव बनाए रखते हैं। अनुशासन के नाम पर उन्हें इतना दबाया जाता है कि अपनी बाल सुलभ चंचलता भूल जाते हैं। माना जाता है कि बच्चों और शरारत के बीच चोली दामन का साथ होता है। हर बच्चा कोई न कोई शरारत करता ही रहता है। लेकिन जब अनुशासन के नाम पर बच्चा दबाव में आता है, तो उसमें एक किस्म की कुंठा या अवसाद पैदा होता है। यह अवसाद ही कई बार उग्र रूप लेकर अपराध करने को प्रेरित कर देता है। बच्चों को स्कूल में खेलने को भी नहीं मिलता है। वहीं घर आते ही मां-बाप कुछ ही देर बाद पढ़ने को बिठा देते हैं या फिर उसे कोचिंग, ट्यूशन पढ़ने को भेज देते हैं। वहां भी बच्चों को पढ़ाने के साथ-साथ ढेर सारा होमवर्क दिया जाता है।
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घर लौटने के बाद बच्चे को स्कूल और ट्यूशन या कोचिंग का होमवर्क पड़ता है। इतना होमवर्क करने के बाद बच्चे लस्त-पस्त हो जाते हैं। जब यही रुटीन रोज का हो जाता है, तो वे अवसाद का शिकार होने लगते हैं। कुछ परिजन तो बच्चों से खेलने-कूदने पर मारपीट भी करते हैं। जींद के एक निजी स्कूल के हॉस्टल में दसवीं के छात्र की चाकू से गोदकर की गई हत्या इसी अवसाद का परिणाम है। बचपन से ही बच्चों को मशीन समझ लेने की प्रवृत्ति ने उनका बचपन छीन लिया है। ऐसे ही बच्चे बड़े होकर बाद में अपराधी बन जाते हैं।
बच्चों की उग्रता को सोशल मीडिया ने भी बढ़ाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी है। ऐसे-ऐसे कंटेट सोशल मीडिया पर परोसे जा रहे हैं जिससे उनका ब्रेनवाश हो रहा है और वे गलत दिशा में जा रहे हैं। अश्लील और हिंसात्मक पोस्ट बचपन से ही उनको दिग्भ्रमित कर रही हैं। वे आभासी दुनिया को ही वास्तविक मान बैठते हैं। ऐसी दशा में सरकार, स्कूलों और परिजनों को बच्चों की शिक्षा दीक्षा पर विशेष ध्यान देना चाहिए। स्कूलों में और घर में उन्हें खेलने का भरपूर मौका मिलना चाहिए। इनडोर गेम्स की जगह आउटडोर गेम्स खेलने को ज्यादा प्रेरित करना चाहिए, ताकि वे दूसरे बच्चों के साथ घुल-मिल सकें।
-संजय मग्गू
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