ब्रह्मसूत्र, विष्णु सहस्रनाम और दिव्य प्रबंधम की टीका लिखने वाले रामानुजाचार्य का जन्म वर्तमान तमिलनाडु के श्रीपेरुबुंदूर नामक गांव में सन 1017 को हुआ था। इनके पिता का नाम केशव भट्ट था। बचपन में ही रामानुज ने कांची जाकर यादव प्रकाश से वेदों की शिक्षा ली। वह अपने समय के प्रसिद्ध आलवार संत यमुनाचार्य के प्रधान शिष्य थे। दक्षिण भारत में उनकी बड़ी ख्याति थी। लोग उनसे मिलने के लिए बहुत दूर दूर से आते थे। संत रामानुज गृहस्थ जीवन त्यागकर संन्यासी बने थे और उन्होंने यतिराज संन्यासी से संन्यास की दीक्षा ली थी। एक बार की बात है।
किसी गांव में संत रामानुज ठहरे हुए थे। इस दौरान काफी लोग उनके प्रवचन सुनने और दर्शन करने के लिए आए हुए थे। उन्हीं में से एक व्यक्ति उनके पास आया और बोला कि मुझे परमात्मा को पाना है, कोई मार्ग बताइए। रामानुजाचार्य ने कुछ देर सोचने के बाद पूछा, यह बताओ, तुमने किसी से प्रेम किया है। उस आदमी ने तत्काल जवाब दिया-मैं ऐसे झंझट में कभी नहीं पड़ा। मेरा प्रेम से क्या लेना-देना। मुझे तो झटपट ईश्वर से मिलने का मार्ग बताइए। तब संत ने अपना प्रश्न दोहराते हुए कहा कि कभी किसी से प्रेम किया है या नहीं।
उस आदमी ने सोचा कि यदि मैं हां कहता हूं, तो यह यही कहेंगे कि पहले प्रेम करने से मुक्ति पाओ। उसने कहा कि मैंने कभी प्रेम नहीं किया। तब रामानुज ने कहा कि मैं तुम्हें ईश्वर पाने का मार्ग नहीं बता सकता। किसी और के पास जाओ। जो व्यक्ति अपने मां-बाप, भाई-बहन, पत्नी, पुत्र-पुत्री, पड़ोसी और गांव या शहर के लोगों से प्रेम नहीं कर सकता, उसे ईश्वर कभी नहीं मिल सकते हैं। प्रेम ही वह माध्यम है जिससे परमात्मा की प्राप्ति हो सकती है। ईश्वर प्रेम के वशीभूत होते हैं।
-अशोक मिश्र