संजय मग्गू
दो दोस्त जब एक दूसरे के दुश्मन बन जाते हैं, तो तीसरा उसका फायदा उठाता ही है। यह बात इजरायल और ईरान पर पूरी तरह से लागू होती है। कभी ईरान और इजरायल एक दूसरे के पक्के दोस्त राष्ट्र हुआ करते थे। जब 1948 में दुनिया के नक्शे पर इजरायल नाम के देश का उदय हुआ, तो तुर्की के बाद इजरायल को मान्यता देने वाला दूसरा मुस्लिम राष्ट्र था। इसके पीछे था ईरान में उन दिनों शासन कर रहा पहलवी राजवंश। करीब पांच दशक से भी ज्यादा समय तक ईरान में पहलवी राजवंश का शासन रहा था। उन दिनों पहलवी राजवंश अमेरिका का समर्थक हुआ करता था। नए-नए बने राष्ट्र इजरायल ने भी अमेरिका का दामन थाम लिया। नतीजा यह हुआ कि ईरान और इजरायल दोनों दोस्त बन गए। दिक्कत तब पैदा हुई जब 1979 में ईरान में मोहम्मद रजा शाह पहलवी के खिलाफ अयातुल्लाह रूहोल्लाह खुमैनी के नेतृत्व में इस्लामी क्रांति हुई और पहलवी राजवंश को पूरी तरह सत्ता से बेदखल कर दिया गया। खुमैनी के नेतृत्व में हुई इस्लामी क्रांति के बाद अमेरिका और इजरायल के संबंध ईरान से बिगड़ गए। खुमैनी ने अमेरिका को महान शैतान और इजरायल को छोटा शैतान कहा, तो अमेरिका और इजरायल दोनों ईरान पर भड़क गए। इन दोनों देशों के संबंध ईरान से बिगड़ गए। ईरान ने अमेरिका और इजरायल से भी तरह के संबंध तोड़ लिए। इजरायली दूतावास को ईरान ने फलस्तीनी दूतावास में बदल दिया। संबंधों में यह खटास समय के साथ धीरे-धीरे बढ़ती गई। ईरान ने एक निश्चित योजना के तहत इजरायल को घेरना शुरू कर दिया। उस पर आरोप है कि उसने सीरिया, इराक, लेबनान, यमन में कुछ ऐसे समूहों को खड़ा कर दिया जिससे इजरायल को परेशानी हो। इराक और सीरिया में शिया लड़ाकू समूहों को ईरान ने प्रश्रय दिया। लेबनान में उसने हिजबुल्लाह, यमन में हूती विद्रोहियों और फलस्तीन यानी गाजा पट्टी में हमास को न केवल हथियारों से मदद की, बल्कि उनको फंड भी मुहैया कराया। ईरान और हिजबुल्लाह का संबंध तो 1979 में हुई इस्लामी क्रांति के दौरान ही कायम हो गया था। अमेरिका ने भी बदले की भावना से ईरान पर समय-समय पर कई तरह के प्रतिबंध लगाए। मध्य पूर्व एशिया और यूरोप में अमेरिकी सैनिकों की तैनाती की ताकि ईरान को समय पड़ने पर घेरा जा सके। मध्य पूर्व एशिया में अमेरिका ने इजरायल जैसे देशों को न केवल आधुनिक मिसाइलें, लड़ाकू विमान उपलब्ध कराए, बल्कि खुलकर उनकी हर गतिविधियों का समर्थन भी किया। अमेरिका को मध्य पूर्व एशिया और यूरोप में हथियारों का एक बहुत बड़ा बाजार मिल गया। अमेरिका पर आरोप तो यह भी लगाया जाता है कि इराकी शासक सद्दाम हुसैन के खिलाफ पहले ओसामा बिन लादेन को खड़ा किया। सद्दाम हुसैन के पतन के बाद जब लादेन अमेरिका के लिए खतरा बन गया, तो उसे मार दिया गया। अमेरिका सिर्फ अपना व्यापार देखता है और कुछ नहीं।
संजय मग्गू