भारत ने गुरुवार को अंतरराष्ट्रीय न्यायालय (आईसीजे) में एक ऐतिहासिक सुनवाई के दौरान विकसित देशों की आलोचना की, जो जलवायु संकट (Climate Crisis) के लिए जिम्मेदार हैं। भारत का कहना था कि विकसित देशों ने वैश्विक कार्बन बजट का सही उपयोग नहीं किया और जलवायु वित्त से जुड़े अपने वादों को पूरा नहीं किया। अब वही देश विकासशील देशों से उनके संसाधनों का उपयोग करने पर रोक लगाने की मांग कर रहे हैं।
आईसीजे यह निर्धारित कर रहा है कि जलवायु परिवर्तन (Climate Crisis) से निपटने के लिए देशों पर क्या कानूनी जिम्मेदारी है, और अगर वे इसमें विफल होते हैं तो इसके क्या परिणाम हो सकते हैं। भारत की ओर से दलील देते हुए विदेश मंत्रालय के संयुक्त सचिव लूथर एम. रंगरेजी ने कहा, “अगर जलवायु संकट में योगदान असमान है, तो जिम्मेदारी भी असमान होनी चाहिए।”
भारत ने यह भी कहा कि विकासशील देशों का जलवायु परिवर्तन (Climate Crisis) में योगदान बहुत कम है, लेकिन वे इस समस्या से सबसे ज्यादा प्रभावित हैं। रंगरेजी ने यह भी कहा, “दुर्भाग्यवश, जिन देशों ने ऐतिहासिक रूप से सबसे ज्यादा योगदान दिया है, वे अब इस समस्या से निपटने के लिए सभी तकनीकी और आर्थिक साधनों से संपन्न हैं।” उन्होंने कहा कि अमीर देश जीवाश्म ईंधन के फायदे उठाते रहे हैं, जबकि विकासशील देशों को अपने ऊर्जा संसाधनों के उपयोग से रोकने का प्रयास किया गया।
भारत ने जलवायु वित्त के वादों को पूरा नहीं किए जाने पर भी निराशा व्यक्त की। भारत ने कहा, “विकसित देशों ने 2009 के कोपेनहेगन सम्मेलन में 100 अरब डॉलर देने का वादा किया था, लेकिन अब तक इसमें कोई ठोस कार्रवाई नहीं हुई है।” भारत ने बकू में हुए सीओपी29 में ‘ग्लोबल साउथ’ के लिए एक नए जलवायु वित्त पैकेज की आलोचना की, क्योंकि यह विकासशील देशों की तत्काल जरूरतों को पूरा करने के लिए अपर्याप्त था।
भारत ने यह भी कहा कि पेरिस समझौते के तहत अपनी जलवायु प्रतिबद्धताओं को पूरा करने के प्रति उसकी प्रतिबद्धता कायम है, लेकिन उसने यह भी चेतावनी दी कि नागरिकों पर अत्यधिक बोझ डालना सही नहीं होगा। “हमारे नागरिकों पर बोझ डालने की एक सीमा है,” भारत ने कहा।
भारत ने यह स्पष्ट किया कि उसके योगदान का जलवायु परिवर्तन (Climate Crisis) में हिस्सा 4 प्रतिशत से भी कम है, जबकि वैश्विक जनसंख्या का लगभग 17.8 प्रतिशत भारत में रहता है। भारत ने कहा कि विकसित देशों से जलवायु वित्त और तकनीकी समर्थन का वादा पूरा नहीं होने के बावजूद, वह पेरिस समझौते के तहत अपने निर्धारित राष्ट्रीय योगदान (एनडीसी) के लिए प्रतिबद्ध है।
भारत ने यह भी कहा कि विकसित देशों को 2050 से पहले कार्बन उत्सर्जन को ‘नेट जीरो’ करने की दिशा में उदाहरण पेश करना चाहिए। यह सुनवाई प्रशांत द्वीप देशों और वानुअतु के वर्षों के संघर्ष का परिणाम है, जिसके तहत आईसीजे से राय मांगी गई है। अगले दो सप्ताह में 98 देश, जिनमें छोटे द्वीप राष्ट्र और बड़े उत्सर्जक शामिल हैं, अपने विचार प्रस्तुत करेंगे। हालांकि, आईसीजे का निर्णय बाध्यकारी नहीं होगा, लेकिन यह जलवायु परिवर्तन के खिलाफ वैश्विक संघर्ष में एक महत्वपूर्ण नैतिक और कानूनी मानदंड स्थापित कर सकता है।
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