महेन्द्र प्रसाद सिंगला
महाराष्ट्र विधानसभा के चुनाव परिणाम तो चुनावों के दो-तीन दिन बाद ही घोषित हो गए थे, लेकिन मुख्यमंत्री का नाम तय एवं घोषित होने में 12-13 दिन का समय लग गया। चुनावोें में महायुति को प्रचंड जीत मिली। प्रचंड जीत की बात इस आधार पर की जा सकती है कि महायुति में अकेले भाजपा अपने दम पर ही सरकार बनाने से बस चंद विधायक ही दूर थी और उसके अन्य दोनों घटक दल शिवसेना (शिंदे) तथा एनसीपी (अजीत) क्रमश: 57 और 41 विधायकों के साथ लगभग 100 के आंकड़े के साथ खड़े थे, जबकि विपक्षी गठबंधन महाविकास अघाडी 288 के सदन में कुल विधायकों का अर्धशतक भी नहीं लगा सके। महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों में महायुति की जीत की संभावनाओं के बीच मुख्यमंत्री का नाम लगभग निश्चित था। आश्चर्य की बात है कि इन संभावनाओं एवं निश्चितताओं के साथ प्रचंड जीत मिलने के बावजूद मुख्यमंत्री का नाम घोषित होने में इतना समय लगना महायुति, विशेषकर भाजपा के लिए एक अच्छा संकेत नहीं था। यदि इस संबंध में समग्र रूप में कहा जाए तो इसमें महाराष्ट्र में 2019 से 2024 तक राजनीतिक घटनाक्रम की मुख्य भूमिका रही।
2019 के चुनावों में वहां एनडीए के भाजपा-शिवसेना गठबंधन को स्पष्ट बहुमत मिला था। निश्चित ही यह जनादेश देवेन्द्र फडनवीस को मुख्यमंत्री बनने के लिए था। एक तो वह 2014 से 2019 तक मुख्यमंत्री रहे थे, दूसरे उन्हीं के नेतृत्व में भाजपा-शिवसेना गठबंधन में 2019 का चुुनाव भी लड़ा गया था और गठबंधन को पूर्ण बहुमत भी मिला था। यह पूर्णतया लोकतांत्रिक जनादेश था, जो शिवसेना के नेता उद्धव ठाकरे की मुख्यमंत्री पद की लालसा और महत्त्वाकांक्षा की भेंट चढ़ गया था। इसमें उद्धव कांग्रेस और एनसीपी के सहयोग से महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री बन गए। 2019-2024 सत्र में महाराष्ट्र में अलग-अलग स्थितियों में तीन मुख्यमंत्री बने। ये तीनों ही स्थितियां लोकतंत्र और जनादेश के साथ खिलवाड़ थीं। इन तीनों मुख्यमंत्रियों को लोकतांत्रिक व्यवस्था में अलोकतांत्रिक मुख्यमंत्री कहा जाए, तो गलत नहीं होगा।
इस संबंध में कटु सत्य तो यही है कि कहीं न कहीं, कुछ न कुछ ऐसा हुआ जरूर था, जिसे उचित नहीं कहा जा सकता। प्रचंड जीत के बाद भी मुख्यमंत्री के नाम की घोषणा में होने वाला विलंब इस बात को स्वयं सिद्ध करता है। कम-से-कम राजनीतिक गलियारों में तो कमोबेश ऐसी चर्चा जरूर थी। इसमें एकनाथ शिंदे की बड़ी भूमिका मानी जाती है। इससे उनका राजनीति में कद औेर पद तो छोटा हुआ ही, उनकी छवि भी जरूर धूमिल हुई है। उनके ऐसे व्यवहार के लिए उनका 2022 में मुख्यमंत्री बनना एक मुख्य कारण माना जा सकता है, जिसके लिए वह निश्चित ही अधिकारी तो नहीं ही थे, लेकिन राजनीतिक परिस्थितिवश वह मुख्यमंत्री बने, जिसे उन्होंने अपना अधिकार समझ लिया। वास्तविकता तो यह है कि उस समय भी देवेन्द्र फडनवीस ही मुख्यमंत्री पद के सही अधिकारी थे। इसमें बड़ी और विशेष बात यह थी कि 2014-2019 में मुख्यमंत्री रहने तथा 2019 में मुख्यमंत्री बनने के एकमात्र अधिकारी होने के बावजूद देवेन्द्र फडनवीस ने 2022 में मुख्यमंत्री बनने वाले एकनाथ शिंदे के साथ अप्रत्याशित रूप से उप मुख्यमंत्री का पद भी स्वीकार कर लिया, जबकि 2024 में किसी भी तरह से मुख्यमंत्री बनने के अधिकारी न होने के बावजूद, एकनाथ शिंदे उनके साथ उप मुख्यमंत्री बनने के लिए सहज रूप से तैयार नहीं दिखे थे। विद्रूप यह कि शायद वह देवेन्न्द को मुख्यमंत्री के रूप में भी नहीं देखना चाहते थे। 2022 में भाजपा ने बड़ा दिल दिखाते हुए एकनाथ शिंदे को मुख्यमंत्री बना दिया, जिसके लिए शिंदे को भाजपा का आभार व्यक्त करना चाहिए था, लेकिन शिंदे ने भाजपा के उस बड़प्पन का सम्मान नहीं रखा।
(यह लेखक के निजी विचार हैं।)