संजय मग्गू
यदि श्रम कोे सिरिंज से रक्त की तरह मानव शरीर से निकाला जा सकता, तो दुनिया भर के पूंजीपति लोगों के शरीर से श्रम निकालते और उचित-अनुचित मूल्य देकर विदा कर देते। लेकिन प्रकृति ने ऐसी व्यवस्था ही नहीं बनाई, इसलिए पूंजीपतियों और सरकारों को श्रम के लिए लोगों की भर्तियां करनी पड़ती हैं। उनसे काम कराना पड़ता है। पूंजीवादी व्यवस्था में महत्व व्यक्ति का नहीं, उसके श्रम का होता है। पूरी दुनिया में जितनी भी व्यवस्थाएं अब तक हुई हैं, उनमें सबसे ज्यादा अमानवीय व्यवस्था पूंजीवादी व्यवस्था है। पूरी की पूरी यह व्यवस्था अपने श्रमिकों के निर्मम रक्त शोषण से उत्पन्न हुए मुनाफे पर टिकी हुई है। मुनाफा कमाने के लिए पूंजीपति और पूंजीवादी व्यवस्था की संचालक सरकारें कुछ भी कर सकती हैं। हमारे देश के एक प्रसिद्ध पूंजीपति इनफोसिस के संस्थापक नारायण मूर्ति ने राष्ट्र के विकास के नाम पर प्रति सप्ताह सत्तर घंटे काम करने की सलाह दी है। लेकिन लार्सन और टूब्रो के चेयरमैन एसएन सुब्रह्मण्यम तो उनसे भी चार कदम आगे निकले। उन्होंने एक सप्ताह में नब्बे दिन लोगों से काम कराने की इच्छा व्यक्त की है। अब तो यह डर लगने लगा है कि आने वाले दिनों कोई पूंजीपति अपने कर्मचारियों से सप्ताह में 168 घंटे काम कराने की मांग कर सकता है यानी चौबीस घंटे सातो दिन। दरअसल, पूंजीपतियों की दृष्टि श्रमिक या कामगार इंसान होते ही नहीं हैं। यदि देश के आम कामगारों को मनुष्य समझा जाता, तो इस तरह की अमानवीय मांग या सलाह नहीं दी जाती। एलएंडटी के चेयरमैन कहते हैं कि मैं भी रविवार को काम करता हूं। तो क्या यह किसी पर एहसान करते हैं, अपनी ही पूंजी बढ़ाते हैं। अपनी कंपनी के लिए काम करते हैं। जब वे काम नहीं करते हैं या थक जाते हैं, तो क्या कोई उनसे पूछने आता है कि वे काम क्यों नहीं कर रहे हैं। वह कहते हैं कि आप घर पर बैठकर क्या करते हैं? आप अपनी पत्नी को कितनी देर तक देख सकते हैं? पत्नियां कब तक अपने पति को देख सकती हैं? आफिस पहुंचें और काम करें। सचमुच कोई अपनी पत्नी या पति को घंटों नहीं देख सकता है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि इंसान एक मशीन है। वह अपने घर पहुंचे और नए कामगार पैदा करने के लिए पत्नी या पति को प्यार करे और फिर आफिस या कारखाना पहुंचकर अपने काम में जुट जाए। मानो, कामगार किसी भी प्रकार की भावना, आवेग और मनोकामना से रहित होता है। कामगार तो बस एक रोबोट है। न तो उसके दिल होता है, न दिमाग होता है, न ही उसको किसी पीड़ा का एहसास होता है, न ही वह अपने परिवार से प्रेम करना जानता है। घोर अमानवीय पूंजीवादी अर्थव्यवस्था से और उम्मीद भी क्या की जा सकती है। जिस व्यवस्था में दवाइयां भले ही एक्सपायर हो जाएं, लेकिन मरीजों को मुफ्त में नहीं दी जा सकती हों, उस व्यवस्था के नुमाइंदे कामगारों के प्रति सहृदय होंगे, ऐसा सोचना भी मूर्खता है।
सुब्रह्मण्यम तो मूर्ति जी से भी चार कदम आगे निकले
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