लियो टालस्टाय रूस से प्रसिद्ध लेखक थे। उन्होंने रूसी जनता के जीवन की सच्ची झांकी अपने लेखन में प्रस्तुत की है। हमारे देश में जिस तरह मुंशी प्रेमचंद को किसानों और गरीबों की व्यथा-कथा को प्रस्तुत करने में सिद्धहस्त माना जाता है, ठीक उसी तरह लियो टालस्टाय के लेखन में रूसी जनता के दुख-दर्द झलकते हैं। उन्होंने मेरा बचपन और मेरा विश्वविद्यालय नाम से दो आत्मकथाएं लिखी हैं और उसमें जो कुछ और जैसा भोगा है, उसको बड़ी साफगाई से प्रस्तुत किया है। एक बार वे चर्च गए। उन्होंने सोचा कि शांत वातावरण में प्रार्थना सुन सकूंगा और कर भी सकूंगा। उन्होंने वहां जाकर देखा कि एक व्यक्ति ईसा की मूर्ति के आगे सिर झुकाकर प्रार्थना कर रहा है। वह आदमी कह रहा था कि हे भगवान! मैंने काफी अपराध किए हैं। ये अपराध वैसे तो क्षमा के लायक नहीं हैं, लेकिन मुझे माफ कर देना। यह व्यक्ति नगर का सबसे धनवान व्यक्ति था। यह सुनकर उन्हें लगा कि यह कितना महान व्यक्ति है, जो अपने गुनाहों को ईसा के आगे स्वीकार कर रहा है। तभी उस व्यक्ति की निगाह टालस्टाय पर पड़ी। उसने पूछा-अभी मैंने जो कहा, उसे आपने सुना क्या? तो टालस्टाय ने कहा कि मैंने पूरा सुना। उस व्यक्ति ने कहा कि आपको मेरी बात सुननी नहीं चाहिए थी। लेकिन इस बात का उल्लेख किसी से मत करना क्योंकि यह मेरे और परमेश्वर के बीच की बात थी। दुनिया वालों के लिए यह बात नहीं थी। इस पर टालस्टाय ने कहा कि आपके अपराधों की स्वीकारोक्ति सुनकर लगा था कि आप महान व्यक्ति हैं। लेकिन यह बात कहकर आपने बता दिया कि वास्तव में आपको अपने किए पर कोई पछतावा नहीं है।
अशोक मिश्र