अहंकार कभी कभी व्यक्ति को चैन से बैठने नहीं देता है। व्यक्ति बैराए पशु के समान इधर-उधर भटकता रहता है, लेकिन अहंकार उसका सुख-चैन सब कुछ छीन लेता है। यही अहंकार कभी श्वेतकेतु को हुआ था। श्वेतकेतु के बारे में एक बात बता दें कि उन्होंने विवाह नाम की संस्था को मजबूत करने में बहुत बड़ी भूमिका अदा की थी। पतिव्रता और पत्नीव्रता होने की परंपरा की शुरुआत श्वेतकेतु ने ही की थी, ऐसा माना जाता है। कहते हैं कि उनके पिता आरुणि ने उन्हें समय पर अध्ययन के लिए गुरुकुल भेजा। जिस गुरुकुल में वे पढ़ने के लिए भेजे गए थे, वे अपने समय के सबसे विद्वान और विचारवान गुरु थे। चौबीस साल बाद जब श्वेतकेतु जब गुरुकुल से लौटा, तो उसके पिता ने पाया कि उसकी चाल में मस्ती कम, अहंकार ज्यादा है।
आरुणि ने पूछा कि गुरुकुल से तुम क्या सीखकर आए हो। श्वेतकेतु ने कहा कि सब कुछ। कुछ भी नहीं छोड़ा। वेद, पुराण, उपनिषद, विज्ञान, तर्क और भी सारा कुछ सीख कर आया हूं। उसके पिता ने कहा कि तुम उस एक को जानकर आए हो जिसको जानने के बाद सारा ज्ञान-विज्ञान अपने आप ही मालूम हो जाता है। अब वह चकराया कि यह एक क्या है जिससे जानने के बाद कुछ भी जानने की जरूरत नहीं पड़ती है।
उसने अपने पिता से पूछा कि वह एक क्या है? उसके पिता ने कहा कि स्वयं को जाने बिना तुम्हारा सारा ज्ञान अधूरा है। तुम गुरुकुल जाओ और फिर से पढ़कर आओ। गुरुकुल में उसके गुरु ने चार सौ गाएं देकर कहा कि जब एक हजार एक गायें हो जाएं, तब आना मैं तुम्हें ज्ञान दूंगा। वन में रहते उसे कई साल बीत गए। अब श्वेतकेतु एक निर्मल बालक की तरह हो गया था। उसका सारा अहंकार धुल गया था। तब उसे गुरु ने कहा कि अब तुम स्वयं को जान चुके हो।
अशोक मिश्र