अभी कोलकाता के ट्रेनी डॉक्टर के साथ हुई दरिंदगी के मामले को लेकर पूरे देश में चल रहे धरना-प्रदर्शन की आंच धीमी भी नहीं हुई थी कि महाराष्ट्र के बदलापुर में दो बच्चियों के यौन शोषण का मामला सामने आ गया। ठाणे में स्थित बदलापुर की जनता भड़क गई। लोगों ने स्कूल में तोड़फोड़ की, रेलगाड़ियों का परिचालन रोक दिया गया। पुलिस तत्काल सक्रिय हुई और जो कानूनी कार्रवाई की जानी थी, वह की गई। आज के सभ्य समाज का सबसे बड़ा सवाल यही है कि आखिर महिलाओं के साथ होने वाले अपराध का सिलसिला रुकेगा कब? अगर हम देश में महिलाओं के साथ होने वाले छेड़छाड़, रेप और रेप के बाद होने वाली हत्या का औसत निकालें, तो यह लगभग 90 से 95 घटनाएं प्रतिदिन होती हैं। आखिर इन्हें रोका कैसे जा सकता है? कुछ लोगों का मानना है कि महिलाओं के साथ होने वाले यौन अपराध के लिए कड़े कानून की जरूरत है। कड़े कानून का मतलब क्या फांसी की सजा है? जिस तरह देश में यौन अपराध बढ़ रहे हैं, उसी तरह लोगों के मन में यह विश्वास बैठता जा रहा है कि हर तरह के यौन अपराध में यदि गुनाहगार को फांसी की सजा दी जाए, तो इस तरह के अपराधों पर अंकुश लगाया जा सकता है। ऐसे लोग बातचीत करते समय चीन, साउथ कोरिया, सऊदी अरब और सिंगापुर की मिसाल देते हुए हर दुष्कर्म के मामले में फांसी की सजा की वकालत करते हैं। यह सही है कि इन देशों में बलात्कार के हर मामले में गुनाह साबित होने के बाद फांसी की सजा दी जाती है। शायद यही वजह है कि इन देशों में बलात्कार के मामले बहुत कम देखने को मिलते हैं। हमारे देश में न्यायपालिका बच्चों से दुराचार करने वाले अपराधियों को फांसी की सजा देती है या फिर बहुत वीभत्स तरीके से बलात्कार और हत्या की गई हो। ऐसे मामलों को रेयर आफ द रेयरेस्ट मानते हुए फांसी की सजा सुनाई जाती है जैसा दिल्ली के निर्भया मामले में हुआ था। यहां पर सवाल उठता है कि जिन देशों में बलात्कारी को फांसी की सजा देने का प्रावधान है, उन देशों में बलात्कार का आंकड़ा शून्य हो गया है? कतई नहीं। हां, वहां बलात्कार के मामले कम जरूर हैं। तो फिर महिलाओं के प्रति हो रहे यौन अपराधों को रोकने का उपाय क्या है? बस, इसी मुद्दे पर सरकार, समाजशास्त्रियों, बुद्धिजीवियों और समाज के हर तबके को विचार करना होगा। मिलकर कोई ऐसी नीति, ऐसा प्रावधान, ऐसा उपाय खोजना होगा जिससे ऐसी घटनाओं को न्यूनतम या शून्य किया जा सके। उससे पहले हमें महिलाओं के प्रति अपना नजरिया बदलना होगा। उन्हें खुद फैसला लेने का अधिकार देना होगा। वे सारी परंपराएं, वे विचार हमें तुरंत दफन करने होंगे जिसमें पीड़िता को अपवित्र मानकर उसका सामाजिक बहिष्कार कर दिया जाता है। बलात्कार की जिम्मेदार पीड़िता नहीं, बलात्कारी है। फिर पीड़िता ही सिर झुकाकर क्यों जिए? जिसने गुनाह किया है, वह क्यों नहीं?
संजय मग्गू