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आचार्य रामचंद्र ने ठुकराई अंग्रेजों की नौकरी

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आचार्य रामचंद्र शुक्ल को हिंदी साहित्य को परिष्कृत करने का श्रेय दिया जाता है। उनकी हिंदी साहित्य की सबसे बड़ी देन ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ नामक पुस्तक है। वह कवि, साहित्य इतिहासकार, उपन्यासकार, निबंध लेखक और भाषाविद थे। उनके पिता चंद्रबली शुक्ल मिर्जापुर में सदर कानूनगो थे। जब उनकी उम्र नौ साल की थी, तभी उनकी मां की मौत हो गई। इनके पिता ने दूसरी शादी कर ली, लेकिन विमाता का व्यवहार इनके प्रति अच्छा नहीं था। मिर्जापुर के लंदन मिशन स्कूल से इन्होंने स्कूल फाइनल परीक्षा पास की।

इनके पिता ने अंग्रेज अधिकारी से कह सुनकर इन्हें नायब तहसीलदार की नौकरी दिला दी। उन दिनों ऐसे पदों पर अंग्रेज अधिकारियों की सिफारिश पर नियुक्तियां हो जाया करती थीं। इसके लिए किसी तरह की परीक्षा पास करने की जरूरत नहीं होती थी। नियुक्ति के बाद जब रामचंद्र शुक्ल अपने पिता के साथ अंग्रेज अफसर से मिलने पहुंचे, तो इनके पिता ने बहुत ज्यादा झुककर अभिवादन किया। यह बात उन्हें रास नहीं आई। वह स्वाभिमानी थे। उन्हें अंग्रेजों के सामने अपने पिता और खुद का झुकना पसंद नहीं आया। अगले दिन से वह नौकरी पर गए ही नहीं।

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उनके पिता ने बहुत कहा कि अंग्रेजों की नौकरी सबसे अच्छी नौकरी है, लेकिन रामचंद्र शुक्ल नहीं माने। इससे नाराज होकर इनके पिता ने इलाहाबाद में वकालत पढ़ने भेजा, लेकिन इसमें वे सफल नहीं हुए। रामचंद्र शुक्ल की रुचि साहित्य में थी। बाद में इन्होंने कई पत्र-पत्रिकाओं का संपादन किया। नागरी प्रचारिणी पत्रिका का संपादन करने के बाद वर्ष 1919 में काशी हिंदू विश्वविद्यालय में प्राध्यापक नियुक्त हुए। यहां उन्होंने अपने जीवन के अंतिम दिनों तक नौकरी की।

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