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कला: खुरदुरे और उदास रंगों में सनी कलाकृतियाँ

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गंभीर कृतियों का अंकन, गंभीर चिंतन-मनन के बाद ही संभव हो सकता है। जिसके लिए कलाकारों को कई-कई रातें तड़प कर गुजारनी होती है, कभी-कभी वर्षों भी। किसी कलाकार को देखकर उसके गंभीरता को पहचान पाना संभव नहीं होता, पर वहीं जब उसकी कृतियों पर नजर पड़ती है तो अचंभित हुए बिना नहीं रहा जा सकता। कलाकार टीके पद्मिनी की कलाकृतियों के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ। खुरदुरा उदास रंग, बेरहम किंतु सधा हुआ स्ट्रोक, बिल्कुल ही गमगीन माहौल में रची-बसी आकृतियां, दु:खों से लदा हुआ बोझिल मुखमंडल, मोटे-मोटे काले बाहरी रेखांकन, कहीं-कहीं तो औसत से अधिक आकृति, धूल-धूसरित बैकग्राउंड, कुल मिलाकर यदि पूरी कृतियों पर बात की जाए तो यही सिद्ध होता है कि अमृता शेरगिल के कृतियों की भांति पद्मिनी की कलाकृतियां भी बेतहाशा बढ़ते हुए और पहाड़ बन चुके दु:ख को ही दर्शाती हैं, पर हैं एकदम उनसे अलग। हां, एक बात है जो दोनों में समान है। दोनों अपने जीवन के मात्र 29 वर्ष ही इस धरा पर गुजार सकीं।

भारतीय कला जगत हेतु ये क्षति बहुत बड़ी है। पद्मिनी तीसरी कक्षा में पढ़ रही थीं, जब उनके पिता की मृत्यु हो गई। शुरू से ही समाज के बंदिशों का सामना हुआ।

वह बड़ी ही अंतर्मुखी थीं, गंभीर थीं। बचपन से ही समाज में घटित घटनाओं, वर्जनाओं से आहत थीं, एकांत उन्हें अच्छा लगता था। उस एकांत में उनका कोई साथी था तो बस संगीत। समय बीतता रहा, पर उसी बीच कब पेंटिंग उनके दु:ख का साथी बन गया नहीं पता, खालीपन धीरे-धीरे सिमटने लगा। आस-पास घटित भेदभाव युक्त घटनाओं से आहत होना उनके लिए आम हो गया था। पर्यावरण, परिवेश पर भी उनकी नजर रहती थी, जो आगे चलकर उनकी कृतियों का हिस्सा बन जाता था। केरल का एक छोटा सा गांव कदनचेरी है जो शहर पोन्नानी के करीब है।

जहाँ 1940 में पद्मिनी का जन्म हुआ। प्रारंभिक शिक्षा पास के ही विद्यालय में पूर्ण करने के बाद आगे की पढ़ाई पोन्नानी में हुई जो करीब सात किलोमीटर दूर था जहाँ इनको पैदल ही जाना होता था। अब तक इनके ड्रॉइंग बुक में सशक्त रेखांकनों को जगह मिल चुकी थी जिसको देखने के बाद कोई भी कलाकार हतप्रभ हुए बिना नहीं रह सकता था और यही हुआ प्रसिद्ध कलाकार नैंबुथिरी के साथ। उन्होंने पद्मिनी की प्रतिभा को देखकर बिना किसी पारिश्रमिक के पढ़ाया।

पद्मिनी जहाँ कहीं भी जाती थीं, गौर से देखती थीं मंदिर की सीढ़ियों पर बैठे लोग, काम से थके हुए लोगों का भोजन करना, चेहरे पर थकान, महिलाओं की दशा आदि-आदि। वो महिला और पुरुष में अंतर नहीं मानती थीं जिसका असर उनकी कृतियों में भी है। उनके कुछ चित्र न्यूड होते हुए भी अश्लील नहीं हैं। रामकुमार के रंग, सूजा की कृतियों जैसे भाव, कहीं-कहीं मातिस सा प्रभाव दिखता तो है पर कृतियाँ नितांत पद्मिनी की अपनी और अपनी शैली की हैं जो उनके अपने हस्ताक्षर हैं जहाँ किसी के छाप को जगह नहीं है।

1961 में चेन्नई के गवर्नमेंट कॉलेज आॅफ फाइन आर्ट्स में प्रवेश लेने के बाद केसीएस पणिक्कर के अधीन अध्ययन करते हुए पद्मिनी ने 1965 में अपनी कला शिक्षा पूरी की। वह कला की शिक्षिका भी रहीं। बहुत ही कम समय के जीवन में पद्मिनी ने रीति-रिवाज के नाम पर ढकोसले बाजी, बंधनों से पार जाने हेतु तमाम कृतियों को रचती रहीं, कुढ़ते मन को फलक मिलने पर जिस आजादी की अनुभूति होती है, उनकी कृतियों में भी रही। गाँव की शान्ति, सुकून, वृक्ष के छांव तले राही का आनंद, एकांत में प्रेम आदि भाव वाले चित्र भी आप रचती रहीं, पर चेहरे पर दुख लगभग हर जगह विद्यमान है।

आदिम आकृतियां आपस में संवादरत हैं, परिप्रेक्ष्य ना होते हुए भी कृतियों में गहराई है। कहीं-कहीं लाल और नीले रंगों से चेहरे को रंगा गया है, पर चेहरे पर गुस्से की जगह शान्ति है। चित्र ‘ग्रोथ’ के लिए मद्रास राज्य ललित कला अकादमी की तरफ से प्रमाणपत्र प्राप्त होने के बाद कृति ड्रीमलैंड, महिलाएं आदि भी पुरस्कृत हुईं। कब्रिस्तान, ड्रीमलैंड, ग्रोथ, महिलाएं तथा पतंग उड़ाने वाली लड़की आपकी प्रमुख कृतियां हैं। कल्पनाओं के पतंग उड़ाने वाली पद्मिनी 11 मई 1969 को 29 वर्ष की अवस्था में दुनिया से विदा हो गईं। पद्मिनी के चित्र, डर्बर हॉल कोच्ची, राष्ट्रीय आधुनिक कला संग्रहालय मद्रास, सालारजंग संग्रहालय हैदराबाद सहित देश और विदेश के निजी संग्रहों में सुरक्षित है

पंकज तिवारी

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