जब तक आप सच्चे मन से कला के साथ नहीं जुड़ पाते हैं, कलाकृतियां नहीं बना सकते, कला का सम्मान बहुत जरूरी है। हमारे यहां दुर्भाग्य की बात यह है कि लोग कला को ओढ़ तो लेते हैं, पर उसकी पूजा नहीं कर पाते। यह विचार बचपन से ही कला के होकर रहे एक ऐसे कलाकार का है जिनके स्टूडियो में आपको भरा-पूरा एवं संपन्न अतीत मिल जाएगा। इनके जीवन में बसा है गांव की पगडंडियों का सफर, चिड़ियों के झुंड और कलरव, जंगल, पहाड़, रेत के टीले, झरने। अरावली के तलहटी में बसे लालसोट में 1 फरवरी 1965 को जन्मे विनय शर्मा इंग्लैंड, पोलैंड, जर्मनी जैसे देशों का सफर कर चुके हैं।
आप अपनी कृतियों में अभी अपने बचपन को ही जी रहे हैं। ज्योतिषी नाना का सानिध्य, उनके द्वारा बनाए गए जन्मपत्रियों में भरे गये चटख रंग, स्कूल के दीवारों पर बने सौ दो सौ साल पुराने भित्ति चित्र तथा स्कूल के बोर्ड पर रोज सौंदर्यात्मक तरीके से सुविचार लिखते हुए आपका मन शुरू से ही कला की तरफ झुक गया था। कला की शिक्षा थोड़ी देर से और परिवार को बहुत मनाने के बाद मिली। राजस्थान स्कूल आॅफ आर्ट से डिप्लोमा करते हुए तमाम प्रयोगों से आप खेल रहे थे अमूर्तन के ज्यादा नजदीक पहुंच कर आप सुकून महसूस कर रहे थे। सुबह से शाम तक कैम्पस में ही रमे रहते हुए वहां निमंत्रित कलाकारों के सानिध्य को भी प्राप्त करते रहे।
प्रसिद्ध कलाकार विजय सिंह, सूजा, जतिन दास, जय झरोटिया, अनुपम सूद, ज्योति भट्ट आदि कलाकारों का सानिध्य आपके लिए बहुत मददगार साबित हुआ। 5 साल वहां बिताने के बाद आप बड़ौदा चले गये जहां आप खुद को स्वतंत्र तरीके से अभिव्यक्त कर पा रहे थे, बंधनों से परे था वो कॉलेज। यहां प्रिंट मेकिंग में अध्ययन के दौरान ही आपका चुनाव इग्लैंड में एक साल के अध्ययन हेतु हो गया जहां आपके विचार और कृतियों में और भी निखार आ गया। डायरेक्टर माइक नोल्स के सहयोग से वहां दिन रात काम करने का मौका मिला। इसका फायदा यह हुआ कि सिल्कस्क्रीन पर एक पूरी श्रृंखला तैयार हो गई। इन कृतियों को आपके एकल प्रदर्शनी में वहां प्रदर्शित भी किया गया। बात 1989 की है।
जहांगीर गैलरी में हुसैन साहब ने कहा था, ‘बहुत आगे जाओगे।’ बात सौ टके सही साबित हुई और आप पहले ड्राइंग फिर पेंटिंग, प्रिंटमेकिंग, एचिंग, लिथोग्रॉफी, पेपर स्कल्प्चर, इंस्टालेशन जैसे कार्यों को करते हुए पेपरमैन जैसे उपाधियों तक पहुंच गये जो आपके उपलब्धि और महत्त्व को कई गुना बढ़ा देता है। वर्ष 2006 में दोहा एशियाई खेल में भारतीय कला का प्रतिनिधित्व करने का मौका आपको मिला। चटख रंग, कैलिग्राफी तथा अरावली पर्वत श्रृंखलाओं के साथ कृतियों का विशेष संयोजन, घुमावदार तथा वृत्त आकार आपकी कृतियों में आम है। आप भगवान गणेश को थीम मानकर लगातार 365 दिनों में 365 कृतियां बना कर एक विशेष उपलब्धि हासिल कर चुके हैं।
जिसे एक साथ ईजल पर संयोजित करने के बाद उस कृति को इंस्टालेशन में तब्दील होते देखा जा सकता है। पुराने ग्रंथों के कागज से बने करीब पचास बच्चों का स्कूली बैग के साथ स्कल्प्चर जिस भी जगह संयोजित कर दिया जाता है, गजब का माहौल क्रिएट हो जाता है। विद्यासागर उपाध्याय तथा धुमाल जैसे लोगों के सानिध्य ने आॅब्जेक्ट को परिपक्व तरीके से देखना, समझना तथा खुद में आत्मसात कर लेने के बाद कृतियों में उतारना एवं मौलिकता कैसे बनाए रखा जा सकता है, जैसे गूढ़ रहस्यों से परिचित कराया।
मानव इतना सशक्त हो गया है कि वह किसी को भी स्थायी नहीं रहने देना चाहता। लोग प्रकृति को नष्ट कर रहे हैं यह ठीक नहीं है। जैसे संदेश आपकी लगभग हर कृतियों में है। चित्र में बनी चिड़िया संदेशों को संप्रेषित करने का एक माध्यम है, पहाड़ स्थिरता और सहन शक्ति का प्रतीक है। पहाड़ है तो पानी है। यह संदेश भी आपक ी कृतियों में है। अरावली के पर्वत श्रृंखलाओं के लगभग डेढ़ हजार चित्र आपने लॉकडाउन के दौरान बनाए हैं। श्याम-श्वेत चित्रों पर आपका अच्छा अधिकार है। काले रंग में ही सारे रंग समाए हुए हैं, ऐसा आपका मानना है। आपको ललित कला अकादमी, आइफेक्स, ग्रुप-आठ जैसे शीर्ष संस्थाओं द्वारा सम्मानित भी किया जा चुका है। विसर्जन के बाद ही नए सृजन की उम्मीद होती है जैसे विचारों से प्रभावित होकर आप अपने कुछ रेखांकनों को कई देशों के पवित्र नदियों में विसर्जित भी करते रहते हैं।
पंकज तिवारी