अनिल धर्मदेश
एक देश में किसी तंत्र या संस्था का अस्तित्व उसकी राष्ट्रीय अस्मिता से बड़ा नहीं हो सकता, फिर चाहे वह उस देश की सत्ता हो या न्यायालय। राष्ट्र सर्वोपरि की भावना का संरक्षक बनकर और राष्ट्रीय अस्मिता के प्रति निष्ठा दर्शा कर ही राजनीति, संस्थाएं और तंत्र शक्ति अर्जित करते हैं। आज चुनाव जीतने के लिए जानता को मुफ्त स्कीमें दिए जाने पर कई विद्वान और संस्थाएं आपत्ति जता रहे हैं। चुनाव आयोग और न्यायालय ऐसी घोषणाओं से अर्थव्यवस्था पर बुरे प्रभाव पड़ने को लेकर सभी दलों को बार-बार चेता रहे है। इस प्रकार के प्रलोभनों से देश को होने वाली आर्थिक क्षति के प्रति जैसी चिंताएं परिलक्षित हो रही हैं, वैसा मंथन देश की समग्र चारित्रिक क्षति और वैचारिक एकरूपता में हो रहे ह्रास के प्रति आज तक किसी ने नहीं दिखाया। सत्ता और विपक्ष, राष्ट्रीय और क्षेत्रीय, वाम और दक्षिणपंथ, लिबरल-कंजरवेटिव और जाति-धर्म के नाम पर दशकों से जारी राजनीति जनित प्रतियोगिता में पूरा देश इतने खेमों में बंट चुका है कि किसी राष्ट्रीय विषय पर भी सर्वस्वीकार्यता संभव नहीं रह गयी।
जिस प्रकार हमारा संविधान विश्व के सबसे दीर्घजीवी संविधानों में एक है और हमारे संतृप्त व सहनशील समाज ने इसकी कमियों को दूर करने के लिए कभी अपेक्षित दबाव नहीं बनाया। ठीक उसी प्रकार भारत के बहुसंख्यक समाज ने 1935 में परतंत्र भारत पर बलात थोपे गए गवर्नमेंट आॅफ इंडिया ऐक्ट की भी वांछित समीक्षा नहीं की। जो समालोचना हुई भी, उस पर समाज और शासन ने कभी ध्यान नहीं दिया। अन्यथा इस एक्ट को भारत के संदर्भ में पुनर्परिभाषित किया जाता। 18वीं सदी के आखिरी दशकों में सत्ता संचालन के जिस लोकतांत्रिक स्वरूप को लोकप्रियता मिली, उसके उदाहरण आर्थिक रूप से समक्ष और कम जनसंख्या वाले देशों से थे। सन 1900 में लोकतंत्र के सबसे बड़े उदाहरण अमेरिका की आबादी महज 7.6 करोड़ थी, जो आज के उत्तर प्रदेश की एक तिहाई से भी बहुत कम है। वहीं समग्र 40 करोड़ की आबादी वाले कोलोनियल ब्रिटिश अंपायर ने अपने देश में लोकतंत्र के साथ राजशाही की शक्तियों को कायम रखा। रूस और चीन जैसे बड़े देशों ने भी पूर्ण लोकतंत्र के स्थान पर साम्यवादी शासन का मॉडल अपनाया। कालांतर में इन देशों ने राष्ट्रपति और कैबिनेट की असीम शक्तियों के माध्यम वोटबैंक वाले लोकतंत्र से विदाई ही ले ली। संभवत: इन देशों के नीतिनिर्धारकों ने वोटबैंक की आड़ में देश की विधारधारा को विभक्त किए जाने से राष्ट्रीय नीति पर पड़ने वाले प्रभावों को समझ लिया था। यही कारण रहा कि इन देशों में लोकतंत्र नहीं होने पर भी इनका समग्र विकास भारत से भी कहीं अधिक तेज गति से होता रहा।
नव स्वाधीनता के खुमार में उस दौर की पीढ़ी ने चालाक अंग्रेजों के बनाए और थोपे गए ऐक्ट को दुर्भाग्यवश अपना पूर्ण हितैषी मान लिया जिसका व्यावहारिकता से कोई संबंध नहीं था। मदनलाल ढींगरा और उधमसिंह से भयभीत गोरे चाहते थे कि भारत छोड़ने के बाद उनपर कोई नया संकट न आए। यही कारण था कि 19वीं सदी में उपनिवेशों की समाप्ति के समय ब्रिटेन ने जिन देशों को छोड़ा, वहां ऐसी व्यवस्थाएं खड़ी कर दीं जिससे वह देश भविष्य में उनसे प्रतिशोध न लें और नव-स्वतंत्र राष्ट्रों के बाजार यूरोपीय उद्योगों के लिए सदैव खुले रहें। इसके लिए सबसे आवश्यक था कि नव स्वाधीन राष्ट्र में विचारधारा को प्रतिस्पर्धी बनाकर उसे बांट दिया जाए। बहुदलीय राजनीति में सभी विचारों का आज अपना अलग और स्थापित दबाव समूह उनकी मंशा की पुष्टि भी करता है। आज भारत में हर मत और विचारधारा के लोग सिर्फ अपनी मांगों और मान्यताओं को राष्ट्रीय उद्देश्य की पूर्ति मानते हैं जबकि शेष सभी की खुली उपेक्षा करना ही उनके अपने मत के प्रति आस्था का द्योतक है।
(यह लेखक के निजी विचार हैं।)
‘राष्ट्र प्रथम’ के लिए लोकतंत्र बना चुनौती
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